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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इस शिथिलता के बावजूद गुजरातने जो कुछ किया है वह स्तुत्य है । क्योंकि यह प्रान्त शिक्षा के क्षेत्रमें सबसे पिछड़े हुए प्रान्तोंमें से था और शायद आज भी है । यदि स्वराज्य के मापदण्डसे देखें तो इन प्रयोगोंको शायद कोई विशेष उपलब्धि नहीं माना जायेगा, लेकिन यदि एक प्रयोगके रूपमें ही इसपर विचार करें तो इस चार सालकी अल्प अवधि में कितनी प्रगति हुई है वह आश्चर्यजनक लगेगी। इससे पर्याप्त संगठन-शक्ति, आवश्यकतानुसार धन जुटानेकी सामर्थ्य और शिक्षा के सम्बन्ध में असहयोग के प्रति विश्वासका परिचय मिलता है । यह सब मैं बिलकुल तटस्थभावसे कह सकता हूँ, क्योंकि यद्यपि मैं गुजरातका रहनेवाला हूँ, फिर भी जब यह प्रयोग चल रहा था, मैं यहाँ बहुत कम रहा और उस काम में मेरा कोई हाथ नहीं था । इसका सारा श्रेय सिर्फ वल्लभभाई और उनके अत्यन्त योग्य सहायकों को ही है । इस प्रयोगके दौरान अधिकांश समयतक और जब परिस्थिति सबसे अधिक संकटापन्न थी तब भी में यरवदा जेलमें आराम कर रहा था और इसलिए इस सम्बन्ध में मुझसे कोई सलाह लेना भी सम्भव नहीं था ।

अपनी स्थितिपर विचार करने तथा अपनी भावी नीतिकी रूपरेखा तैयार करने के लिए शिक्षकोंने जब पिछले हफ्ते अपना सम्मेलन किया तो उनकी यह इच्छा स्वाभाविक और उचित ही थी कि मैं उनकी कार्यवाहीका संचालन करूँ । मुझको जो काम सौंपा गया था यदि मैं उसपर अधिक समय और श्रम दे पाता तो कितना अच्छा होता । मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं था; और अनेक काम सामने थे, इसलिए मैं (उसके लिए पर्याप्त रूपसे) आवश्यक अध्ययन और तैयारी नहीं कर सका ।

वैसे उस सम्मेलनमें उपस्थित शिक्षकोंको मैंने उस सफलता के लिए तो बधाई दी जिसका परिचय उपर्युक्त विवरणसे मिलता है, किन्तु साथ ही वे जिन अनेकानेक संस्थाओंका संचालन कर रहे हैं, उनकी कुछ स्पष्ट खामियों और कमजोरियोंकी ओर भी मुझे उनका ध्यान आकृष्ट करना पड़ा । राष्ट्रीय पाठशालाओंकी स्थापना स्वराज्य प्राप्ति के लिए ही तो की गई है और इस दृष्टिसे सच्ची राष्ट्रीय पाठशालाका संचालन इस बातको ध्यान में रखकर करना चाहिए कि वह शिक्षण संस्थाओंकी हदतक राष्ट्रीय कार्यक्रमको पूरा करनेमें कहाँतक सहायक सिद्ध हो रही हैं। इस तरह, उदाहरणके तौरपर हम कह सकते हैं कि चरखेके सन्देशके प्रचारमें, हिन्दुओं, मुसलमानों तथा अन्य जातियोंको एक-दूसरेके निकट लाने में, अन्त्यजोंको शिक्षित करनेमें तथा स्कूलोंसे अस्पृश्यता के अभिशापको दूर करनेमें राष्ट्रीय पाठशालाओंको एक बहुत जबरदस्त साधन साबित होना चाहिए। इस दृष्टिसे देखा जाये तो यह प्रयोग असफल है और अगर असफल नहीं तो आशाके अनुरूप सफल कदापि नहीं माना जा सकता । ३०,००० लड़कों और लड़कियों में से मुश्किलसे एक हजार लड़के-लड़कियाँ १०० चरखोंपर प्रतिदिन सिर्फ आधा घंटा कताईका काम करते हैं। सैकड़ों चरखे बेकार और उपेक्षित दशामें पड़े हुए हैं । यद्यपि कहनेको तो इन स्कूलोंके द्वार अन्त्यजोंके लिए खुले हुए हैं, किन्तु वास्तवमें बहुत कम स्कूलों में अन्त्यज बच्चे पढ़ रहे हैं । मुसलमान विद्यार्थियोंकी संख्या बहुत कम है । इसलिए मैंने निःसंकोच होकर कहा कि अब हमें इन पाठशालाओंकी संख्या बढ़ाने के बजाय, इनमें अधिकाधिक अच्छा काम करानेका प्रयत्न करना है। बच्चोंके प्रवेशके लिए