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शिक्षकोंकी परिषद्

उत्तरोत्तर कड़ी कसौटी रखते जाना चाहिए। जो माता-पिता नहीं चाहते कि उनके बच्चे कताई करें या अन्त्यजोंसे मिले-जुलें, वे चाहें तो अपने बच्चोंको इन पाठशालाओंसे हटा लें। मैंने बेहिचक सलाह भी दी कि अगर उन पाठशालाओंको चलाते रहनेके लिए अन्त्यजों और चरखेको स्थान न देना जरूरी जान पड़े तो वैसी दशा में शिक्षकोंको उन्हें बन्द कर देने तकके लिए तैयार रहना चाहिए । अन्त्यज विद्यार्थी किसी तरह चोरी-छिपे हमारी पाठशालाओं में प्रवेश पा जायें तो उन्हें बर्दाश्त कर लेना ही काफी नहीं; जरूरत इस बातकी है कि उनके प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार करके और विशेष ध्यान देकर उन्हें इन पाठशालाओंमें अधिक संख्या में आने की प्रेरणा दी जाये । शिक्षक मुसलमान और पारसी माता-पिताओं द्वारा बच्चोंके भेजे जानेकी राह न देखें; बल्कि उनसे जाकर अपने बच्चे भेजने के लिए कहा जाये । राष्ट्रीय शिक्षकको अपने क्षेत्रमें स्वराज्यका उद्भट प्रचारक बन जाना चाहिए। उसे अपनी पाठशालाके प्रत्येक बच्चे के बारेमें पूरी जानकारी होनी चाहिए। यही नहीं, उसे पाठशालासे बाहरके बच्चोंके बारेमें भी जानना चाहिए। उसे उनके माता-पिताओं के बारेमें भी जानकारी होनी चाहिए और यह मालूम होना चाहिए कि उन्होंने अपने बच्चोंको उसकी पाठशालामें क्यों नहीं भेजा; और उसे यह सब असहिष्णु बनकर नहीं, बल्कि प्रेमसे करना चाहिए। केवल इसी रास्ते पर चलकर राष्ट्रीय पाठशालाएँ, कांग्रेस प्रस्तावमें बताये गये अर्थोंमें वास्तविक राष्ट्रीय पाठशालाएँ बन सकती हैं।

काम कठिन है इसमें शक नहीं। इस सरकारने हर चीजको अर्थमूलक बना दिया है । चरित्र तो किसी भी चीजकी कसौटी रह ही नहीं गया है। थोथे पाठ्य-क्रममें सूचित पुस्तकोंको तोते की तरह रट लेनेकी क्षमता ही एकमात्र कसौटी मानी जाती है। हर पेशेको गिराकर आजीविकाका साधन बना डाला है । हम वकील, डाक्टर या शिक्षक इसलिए नहीं बनते कि देशकी सेवा करें, बल्कि इसलिए बनते हैं कि पैसा कमायें । इसलिए विद्यापीठको आत्माका हनन करनेवाले ऐसे ही वातावरण में से शिक्षक चुनने पड़े हैं। अधिकांश शिक्षकोंको स्वयं अपने-आपसे और अपने परिवेश से ऊपर उठना पड़ा है। उन्होंने देशकी पुकारको सुन लिया, यही अचरजकी बात है ।

लेकिन, अब चार वर्षोंके अनुभव के बाद हमें एक नया अध्याय प्रारम्भ करना है । अब हम जहाँ-तहाँ रुके नहीं रह सकते। ऐसा करना तो सर्वनाशको आमन्त्रित करने जैसा होगा । इसलिए हमें आग्रह रखना चाहिए कि सभी लड़के और लड़कियाँ प्रतिदिन कमसे कम आधा घंटा चरखा चलायें । तीस हजार लड़के और लड़कियाँ तथा आठ सौ शिक्षक चरखा चलायें -- देशके लिए प्रतिदिन आधा घंटा मेहनत करें-- यह कोई मामूली शिक्षा नहीं है। इसका मतलब है प्रतिदिन आधा घंटा देशभक्ति, उपयोगी श्रम और दान तथा त्यागका पाठ पढ़ना । कोई लड़का अपने शिक्षण-कालमें ही किसी प्रतिदानकी अपेक्षा किये बिना अपना श्रम और समय देना शुरू कर दे, यह बात बलिदानका गुण सीखनेकी दृष्टिसे पदार्थ पाठके समान है, जिसे वह अपने जीवनमें आगे चलकर भी नहीं भूलेगा और राष्ट्रके लिए इसका मतलब है प्रति मास १८७५ मन सूतका दान। इससे कमसे कम ५,००० आदमियोंको एक-एक धोती मिल