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शिक्षा परिषद्

के बराबर है । सब लोग शुद्ध भावसे यथाशक्ति दें; यही मेरी याचना है। जो कुछ मिलेगा उसकी पहुँच 'नवजीवन' में देनेका इरादा रखता हूँ । एक सज्जनने २५० रुपये दिये हैं। वे तो उसी समय मिले थे जब दक्षिण कर्नाटकमें पहली बाढ़ आई थी । फिर भी उनकी प्राप्ति स्वीकार आज करता हूँ ।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, १०-८-१९२४

२९५. शिक्षा परिषद्

यह परिषद् आरम्भ हुई और समाप्त हो गई। शिक्षकों और साधारण जनता दोनोंकी दृष्टिसे इसे महत्त्वपूर्ण माना जाना चाहिए। परन्तु आज तो इन दोनोंमें से कोई भी इसे महत्व नहीं देगा । शिक्षकोंकी कीमत न तो लोगोंकी दृष्टिमें है और न खुदकी उनकी ही दृष्टिमें । उनकी कीमत उनके वेतनसे आँकी जाती है। शिक्षकका वेतन एक मुन्शीके वेतनसे भी कम होता है। इसलिए रिवाजके अनुसार शिक्षककी कीमत मुन्शीसे भी कम हो गई। कहीं इसी कारण तो हम शिक्षकको मुन्शीजी कहते हैं ?

तो अब शिक्षकका दरजा किस प्रकार ऊँचा हो ? भला सात लाख देहातोंके सात लाख शिक्षकोंका वेतन कोई बढ़ा सकता है ? इतने शिक्षकोंका वेतन नहीं बढ़ाया जा सकता और बढ़ाना आवश्यक मालूम हो तो कुछ गाँवोंमें महँगे शिक्षक रखकर शेष गाँवोंको शिक्षासे वंचित रखना पड़ेगा । जबसे अंग्रेजी राज्यकी स्थापना हुई है यही होता आया है । हम देखते हैं कि यह तरीका गलत है । अतः हमें ऐसी तरकीब ढूंढ निकालनी चाहिए जिससे हम सभी गाँवों में शिक्षाका प्रबन्ध कर सकें। वह तरकीब यह है कि शिक्षकों की कीमत वेतन के अनुसार न आँकी जाये, बल्कि शिक्षक वेतनको गौण मानकर शिक्षाको प्रधान स्थान दें । संक्षेपमें कहें तो शिक्षा प्रदान करना शिक्षकका धर्म होना चाहिए। इस यज्ञको किये बिना जो शिक्षक भोजन करे, उसे चोर समझना चाहिए। यदि ऐसा हो जाये तो फिर शिक्षकोंकी कमी न रहे और फिर उनकी कीमत करोड़पति से भी करोड़ गुनी अधिक मानी जाये । प्रत्येक शिक्षक अपनी भावनाको बदलकर आज भी इस स्थितिको प्राप्त कर सकता है ।

इस परिषद्को सफल करना, न करना शिक्षकोंके हाथ है। शिक्षकोंकी प्रतिज्ञामें सफलताकी कुँजी है । यदि शिक्षक अपना धर्म मानकर कताई सम्बन्धी तमाम विधियाँ सीख लें और प्रति मास कमसे कम ३,००० गज सूत कांग्रेसको अर्पण करें तो शिक्षा-परिषद् सफल ही मानी जा सकती है। इतना तो हरएक शिक्षक करके दिखा सकता है। राष्ट्रीय शिक्षकोंका वर्तमान कार्य है स्वराज्य प्राप्तिमें मदद करना । सूत कातना और खादी पहनना यह उनकी कमसे कम और सर्वप्रथम सहायता है । जो इतना करते हैं, वे शेष बातें भी करते हैं । दूसरी तमाम बातोंके करते हुए भी जो इतना नहीं करते, वे कुछ भी नहीं करते ।