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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यह संकट एक दिन या एक महीनेमें दूर नहीं हो सकता । यह तो सालभर या सालों भी चल सकता है । पिछले साल दक्षिण कर्नाटकमें बाढ़ आ गई थी । उसका काम अभी चल ही रहा था कि इस बीच वहाँ फिर बाढ़ आ गई है । फिर इस कारण सहायताका कार्य नये सिरेसे किया जाना है । परन्तु जब इतनी छोटी-सी बाढ़से हुई हानिका प्रबन्ध करनेमें लगभग पूरा साल भी काफी नहीं हुआ, तब जहाँ प्रान्तका-प्रान्त जलमग्न हो गया है वहाँका प्रबन्ध करनेमें कितना समय लगेगा, यह कौन कह सकता है ? इसलिए मैं गुजराती समाजकी उदारताका अवश्य ही आह्वान करना चाहता हूँ ।

गुजरातियोंने उड़ीसा के अकाल-पीड़ित लोगोंको[१] दिल खोलकर मदद दी थी । गुजरातियोंने दूसरे अनेक कोषोंमें रुपया दिया है। दान देना जिसका स्वभाव बन गया है उसीके सामने हाथ भी फैलाया जा सकता है। अतः 'नवजीवन' के पाठकोंसे मेरी याचना है कि वे मलाबारके निराधार लोगोंकी सहायता करें। वे जो भी चाहें और जितना भी चाहें भेजें। विद्यार्थियोंसे भी उन्हें मलाबारका भूगोल पढ़ाकर, मलाबारियोंके संकटकी बातें बताकर और उनकी प्रेमवृत्तिको जाग्रत करके कुछ प्राप्त किया जा सकता है ।

प्रत्येक पाठक


१. अपनी एक दिनकी आमदनी दे सकता है ।
२. अपने पड़ोसीसे भी इतना ही त्याग करा सकता है ।
३. अपने एक दिनके भोजनकी कीमत के बराबर रकम दे सकता है ।
४. इस निमित्त अधिक सूत कातकर भेज सकता है।
५. अपने कपड़े-लत्तेके खर्च में कुछ भी कमी करके उससे कुछ बचाकर भेज सकता है ।
६. यदि उसे कोई व्यसन हो तो उसे छोड़कर बचनेवाली रकम दे सकता है।
७. जो पूरा व्यसन न छोड़ सके तो उसमें कमी करके बचतकी रकम भेजी जा सकती है ।
८. जो अनेक व्यसन करता हो वह उनमें से इस दृष्टिसे कुछ व्यसन छोड़ कर मदद कर सकता है । जो खुद ऐसा करेगा वह अपने मित्रों और रिश्तेदारोंको भी उसके लिए प्रेरणा दे सकता है ।

इसमें सहयोगी और असहयोगीका भेद नहीं हो सकता ।

पाठक इस बातपर विश्वास रखें कि जो धन और जो चीजें मिलेंगी उनका सदुपयोग ही होगा । इसका जितना प्रबन्ध हो सकेगा, उतना किया जायेगा ।

यह सवाल पूछना आवश्यक नहीं है कि कितने धनकी जरूरत है । यहाँ इसी न्यायसे काम लेना चाहिए कि जितना अधिक देंगे उतना ही अधिक फल होगा। जितना देंगे और जितना करेंगे, सब कम होगा। सद्भावसे जो चीज मिलेगी वह लाख-

  1. १. सन् १९२०-२१ में ।