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३० सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

की जायें। दिनमें दूसरे काम करने हों तो वे भी किये जा सकते हैं। हजारों लोगोंके लायक विशाल मण्डप बनाने के लायक रुपया हमारे पास आये भी कहाँसे!

बोरसदमें पण्डित मोतीलालजी और अन्य महान् नेताओंके आनेकी सम्भावना है। उनके और हमारे बीच शायद मतभेद हों। भले ही हमारे एक बड़े भागको कौंसिल-प्रवेश पसन्द न हो; परन्तु ऐसी हालतमें हमें कौंसिल-प्रवेशके हिमायतीका अधिक आदर करना चाहिए। जिससे मतभेद हो उसका तिरस्कार सत्याग्रही कभी नहीं करता। यदि वह उसे जीतना चाहता है तो बुद्धि और प्रेमके बलपर जीतता है। बुद्धि धैर्य धारण किये रहे और प्रेम प्रतिष्ठाका ध्यान रखे। जहाँ मतभेद हो वहाँ हृदय भी अलग हो जायें तो स्वराज्यकी गाड़ी चल नहीं सकती। जो स्थिति पं० मोतीलालजी-जैसे मेहमानोंकी है वहीं गुजरातके स्वराज्यवादियोंकी है। हमारा आचरण ऐसा नहीं होना चाहिए जिससे उन्हें कोई ठेस पहुँचे। विट्ठलभाई कौंसिल में गये और दूसरे गुजराती भी गये, इस कारण वे हमारे लिए कम आदरणीय नहीं हो जाते। हम करें तो वहीं जो हम ठीक समझते हों, परन्तु आदर हम सबका करें। सत्याग्रहीका शत्रु कैसा? सुना तो यह है कि कौंसिल-प्रवेशकी बातने गुजरातमें भी एक दूसरेके प्रति मनमुटाव पैदा कर दिया है। कोई कहता है कि इसमें स्वराज्यवादियोंका दोष है और कोई कहता है कि असहयोगियोंका। यदि यह कहावत सच हो कि ताली दोनों हाथोंसे बजती है तो थोड़ा-बहुत दोष दोनोंका ही होना चाहिए। कुछ असहयोगियोंका कथन है कि स्वराज्यवादियोंने असहयोगको ढीला बना दिया है। जो असहयोगी ऐसा कहता है उसपर इस बातका दायित्व है कि वह स्वराज्यवादियोंके प्रति मिठास अर्थात् नय कायम रखे। फिर यह तो स्पष्ट ही है कि असहयोगियोंकी संख्या अधिक है और विनय कायम रखनेका भार हमेशा बहु-संख्यक पक्षपर होता है। मैं आशा रखता हूँ कि बोरसदकी परिषद् विनयका पदार्थपाठ पढ़ायेगी।

विनय कायम रखना एक बात है और विनय अथवा एकताके नामपर अपने विचारका त्याग करना दूसरी बात है। देशके सामने इस समय महत्वपूर्ण प्रश्न है, कौंसिल-प्रवेशका। उसका फैसला जो-कुछ होना होगा, होगा। सेवकोंका तो यही काम है कि वे श्रद्धासे एकाग्र होकर अपना काम करते चले जायें। फसल तो जैसी चाहिए वैसी है; परन्तु वह काटनेवालोंके अभावमें खड़ी ही है। जरूरत है:

१. बुनाई-शास्त्रमें प्रवीण प्रामाणिक कार्यकर्ताओं और कार्यकत्रियोंकी;

२. उद्यमी, निर्मल और जिज्ञासु शिक्षकोंकी; और

३. खास तौरपर अन्त्यजोंकी सेवा करनेवाले कार्यकर्ताओंकी।

इस किस्मके लोगोंकी कमी सारे देशमें है। यह कमी गुजरातमें भी है। उसकी पूर्ति किस तरह हो? इसका एक ही रास्ता है। हममें अपने कार्यके प्रति श्रद्धा और सेवा करने की शक्ति होनी चाहिए। स्वतन्त्रताका अर्थ यह नहीं है कि सब अधिकारी बन जायें। स्वतन्त्र तन्त्रमें सेवक, स्वार्थ साधने के लिए नहीं, कर्तव्य समझकर सेवा करते हैं। परतन्त्रतामें सेवक पेट भरने के लिए नौकरी करता है। स्वतन्त्रतामें तन्त्रकी

१. पटेल।