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२२. सन्देश : अन्त्यज परिषद्को

१४ मई, १९२४

अस्पृश्यताके प्रश्नका महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है और बढ़ना ही चाहिए। आप और मैं दोनों ही यह जानते हैं कि अन्त्यजोंके प्रश्नको हाथमें लेनेका हमारा उद्देश्य राजनैतिक स्वार्थ साधन नहीं है। अस्पृश्यता-निवारणमें स्वराज्यकी कुंजी भले ही छिपी हो; परन्तु यह प्रश्न मुख्यतः धर्मसे सम्बन्धित है। मेरा यह विश्वास दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है कि अस्पृश्यताको बनाये रखकर हिन्दू धर्म टिक ही नहीं सकता। हम अस्पृश्यताको मिटानेका प्रयत्न करके अपने-आपको शुद्ध करते हैं, अस्पृश्योंको नहीं। मैं तो इस कार्य को करते समय स्वराज्य रूपी स्वार्थका जरा भी विचार नहीं करता। हाँ, यह सच है कि राष्ट्रीय कांग्रेसके कार्यक्रममें अस्पृश्यता-निवारणको शामिल कराने में मेरा हाथ है; परन्तु इसके पीछे राजनीतिक दृष्टि नहीं है, विशुद्ध धार्मिक दृष्टि है। लोगोंके मनोंमें यह तथ्य अंकित करना था कि अस्पृश्यताका निवारण किये बिना स्वराज्य मिल ही नहीं सकता। इस कार्यक्रमको कांग्रेसके कार्यक्रममें केवल इसी दृष्टिसे रखा गया है। यदि आज ही स्वराज्यकी प्राप्ति सम्भव हो तो भी यह समस्या तो बनी ही रहेगी। यदि कोई मनुष्य मुझसे यह कहे कि अस्पृश्यताकी बात छोड़ दो, मैं तुमको स्वराज्य दे दूँगा तो मैं एक क्षण ठहरे बिना.तत्काल यह उत्तर दूँगा कि मुझे ऐसा स्वराज्य नहीं चाहिए। मेरी दृष्टिमें अस्पृश्यताको अपनाना हिन्दुत्वका त्याग करना है। आप यह निश्चित माने कि जिन दिनों सम्मेलन हो रहा होगा उन दिनों मेरा शरीर तो जुहुम होगा, परन्तु मेरी आत्मा आपके समीप होगी।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १८-५-१९२४

१. यह बोरसदमें हुई परिषद्के अध्यक्ष विठ्ठल लक्ष्मण फड़केको भेजा गया था।