पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 25.pdf/११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

भूमिका

इस खण्डमें १६ अगस्त, १९२४ से लेकर १५ जनवरी, १९२५ तककी सामग्री दी गई है। इस अवधिमें गांधीजीने राष्ट्रीय एकता, हिन्दू-मुस्लिम एकता, कांग्रेसकी हदतक स्वराज्यवादियों और अपरिवर्तनवादियोंके बीच मेल-जोल स्थापित करने तथा कांग्रेस और देशके अन्य राजनीतिक दलोंको एक मंचपर लानेके लिए उत्कट प्रयास किया। यह खण्ड उसी प्रयासका विस्तृत विवरण प्रस्तुत करता है। उन्होंने असहयोग आन्दोलनके स्थगित कर दिये जानेसे उत्पन्न निराशा और अवसादकी भावनाको विनाशकारी लड़ाई-झगड़ों और पारस्परिक कटुताका कारण ठहराया और उस आन्दोलनके प्रणेताकी हैसियतसे देशमें व्याप्त हिंसाके वातावरणको दूर करना अपना कर्त्तव्य माना; और इस कर्त्तव्यको पूरा करनेका प्रयत्न किया--तपश्चर्या और विरोधियोंके सामने स्वेच्छासे आत्मसमपर्ण करनेके तरीकेसे। सितम्बर-अक्तूबरका २१ दिनोंका उपवास, स्वराज्यवादी नेताओंके साथ नवम्बर महीने में कलकत्तामें किया गया समझौता, बम्बईमें (नवम्बरमें) आयोजित सर्वदलीय सम्मेलन और उन्हींकी अध्यक्षतामें सम्पन्न कांग्रेसका अधिवेशन--इस कालकी ये तमाम घटनाएँ, उस विनय-भावनाकी साक्षी भरती हैं जिसके द्वारा उन्होंने देशमें मेल-जोल स्थापित करनेका प्रयत्न किया।

हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच तनाव चल रहा था और कुछ मास पूर्व गांधीजीने उसके कारणोंका विश्लेषण करते हुए उसका उपचार भी बताया था। (देखिए खण्ड २४)। जब अगस्त १९२४में कई स्थानोंसे मन्दिरोंकी पवित्रता भंग किये जानेके समाचार मिले तो गांधीजीको बड़ी चिन्ता हुई। उन्होंने इस विषयपर अपना रवैया साफ शब्दोंमें पेश करते हुए कहा: "मैं मूर्ति-पूजक भी हूँ और मूर्ति-भंजक भी, पर उस अर्थमें जिसे मैं इन शब्दोंका सही अर्थ मानता हूँ। मूर्ति-पूजाके पीछे जो भाव है, मैं उसका आदर करता हूँ। मनुष्य-जातिके उत्थानमें उससे बहुत सहायता मिलती है और मैं चाहूँगा कि अपने प्राण देकर भी उन हजारों पवित्र देवालयोंकी रक्षा करनेकी सामर्थ्य मुझमें हो, जो हमारी इस जननी-जन्मभूमिको पुनीत कर रहे हैं।...मैं मूर्ति-भंजक इस मानीमें हूँ कि मैं उस धर्मान्धताके रूपमें छिपी सूक्ष्म मूर्ति-पूजाको खण्डित करता हूँ जो अपनी ईश्वर-पूजाकी विधिके अलावा दसरे लोगोंकी प्रजाविधिमें किसी गुण और अच्छाईको देखनेसे इनकार करती है।" (पृष्ठ ४८-४९)। उन्होंने अज्ञात अपराधियोंको अपने हृदयकी व्यथा सुनाई: "ये घटनाएँ मेरे हृदयके टकड़े-टुकड़े कर रही है।" (पृष्ठ ५०)। उन्हें इस सबके पीछे कोई योजनाबद्ध प्रयास होनेका आभास हुआ और उन्होंने यह बात सार्वजनिक रूपसे भी कही। उन्होंने हिन्दुओंको प्रतिशोधकी भावनाके वशीभूत न होनेकी सलाह देते हुए इन कुकृत्योंके लिए जिम्मेदार मुसलमानोंसे कहा: "याद रखो, इस्लामकी जाँच तुम्हारी करतूतोंसे हो रही है।...बदला भी आखिर एक हदतक ही लिया जा सकता है। हिन्दू लोग अपने देवालयोंको जानसे अधिक मानते हैं। हिन्दुओंकी जानको नुकसान पहुँचानेकी बात तो किसी