पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 25.pdf/१२

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हद तक समझमें आ सकती है, पर उनके मन्दिरोंको हानि पहुँचानेकी बात समझमें नहीं आ सकती। धर्म जीवनसे बढकर है।" (पष्ठ ४९-५०)। इस साम्प्रदायिक वैमनस्यकी चरम-परिणति पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त में कोहाटमें हुई। वहाँ ९ और १० सितम्बरको हिन्दुओंपर सामूहिक रूपसे हमले किये गये और समस्त हिन्दू परिवारोंको अपना घर-बार छोड़कर रावलपिंडीमें शरण लेनी पड़ी।

इस आपसी कलहसे गांधीजीकी आत्मा व्यथित हो उठी। उन्होंने सी० एफ० एन्ड्रयूजको लिखे एक छोटे-से पत्रमें अपनी इस व्यथाको प्रकट करते हुए कहा: "किन्तु, अब तो मेरे मनको शीघ्र ही शान्ति मिल जायेगी। मैं अपने कर्तव्यका स्पष्ट संकेत पानेके लिए व्याकुल था।...क्या कोई मनष्य अपना जीवन देनेसे अधिक सकता है?" (पृष्ठ १६७) उन्होंने आत्मशुद्धिके लिए २१ दिनोंका उपवास करनेका निश्चय किया था। उन्हें लगा कि इन सारे फसादोंकी जिम्मेदारी उनपर है। "क्या जनताकी भारी शक्तिको जाग्रत कर देनेके लिए मैं ही जिम्मेवार नहीं था? अगर यह शक्ति आत्म-विनाशका कारण बन रही है तो मुझे कोई उपचार ढूँढ़ना ही है।" (पृष्ठ २१३)।

गांधीजीके इस उपवासके मर्मको महादेव देसाई-जैसे उनके अन्तरंग सहयोगी भी नहीं समझ पाये। उनकी शंकाओंका समाधान करते हुए गांधीजीने कहा: "आज देखता हूँ कि अहिंसाकी गंधको भी जाने बिना लोग एक-दूसरेके साथ असहयोग करने लगे है। इसका कारण क्या है? इसका कारण सिर्फ यह है कि मैं खुद ही अहिंसक नहीं हूँ। मेरी अहिंसा भी कोई अहिंसा है? अगर वह पराकाष्ठापर पहुँच जाती तो आज मैं जो हिंसा देख रहा हूँ वह न देखनेको मिलती। इसलिए मेरा उपवास प्रायश्चित्त है, तपश्चर्या है। मैं किसीको दोष नहीं देता। मैं तो अपनेको ही दोष दे रहा हूँ। मेरी शक्ति चली गई है। हार-थककर, अपनी शक्ति खोकर अब मुझे सिर्फ ईश्वरके ही दरबारमें अर्ज करना है।" (पृष्ठ १८८)। निदान तारीख १७को दिल्ली में मुहम्मद अलीके घर उन्होंने उपवास शुरू कर दिया। इसने एकताके पक्षमें वातावरण तैयार किया, जिसका परिणाम प्रकट हआ ऐक्य सम्मेलनके रूपमें। सम्मेलनने २७ तारीखको एक प्रस्ताव पास करके इस झगड़ेकी तीव्र निन्दा की और साम्प्रदायिक दंगोंको बर्बर तथा धर्मविरुद्ध व्यवहार बता कर उनकी भर्त्सना की। इसी प्रस्तावके द्वारा पंचोंका एक बोर्ड भी नियुक्त किया गया, जिसका काम दोनों सम्प्रदायोंके बीचके झगड़ोंका निबटारा करना और अल्पसंख्यकों के अधिकारोंकी रक्षाके लिए एक योजना तैयार करना था। सम्मेलनने गांधीजीसे उपवास समाप्त करनेके लिए एक अपील भी जारी की। गांधीजीने इस अनरोधको स्वीकार नहीं किया क्योंकि उपवासको वे सीधे अपने और ईश्वरके बीचका मामला मानते थे।

कांग्रेसके भीतर स्वराज्यवादियोंकी स्थितिकी समस्या अत्यन्त जटिल थी। अपरिवर्तनवादी लोग चाहते थे कि कांग्रेसके मूल असहयोग कार्यक्रमका पालन निष्ठापूर्वक और कड़ाईसे किया जाये, लेकिन स्वराज्यवादियोंने कौंसिलोंमें जाकर वहाँ रोध-अवरोधकी नीतिसे काम लेनेका कार्यक्रम स्वीकारा था। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीकी जून महीनेकी बैठकके बाद इन दोनों पक्षोंके बीच कांग्रेसको अपने-अपने नियन्त्रणमें