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जेलके अनुभव--११

मेरा जीवन बिलकुल प्रारम्भसे ही कठिनाइयों और संघर्षोंका जीवन बन गया। इसकी शुरुआत काठियावाड़के तत्कालीन पोलिटिकल एजेन्टके साथ झगड़ेसे हुई। इसलिए अध्ययन-मननमें दिलचस्पी लेनेका बहुत समय नहीं मिला। दक्षिण आफ्रिकामें स्वातन्त्र्ययुद्धका मुकाबला था, परन्तु उसके बावजूद वर्षभर मुझे काफी अवकाश रहा। १८९३ का वर्ष मैंने धार्मिक साधनामें बिताया। इसलिए सारा पठन धार्मिक ही हुआ। १८९४के बादसे मुझे जमकर पढ़ने का समय दक्षिण आफ्रिकाकी जेलोंमें ही मिला। मुझे न केवल पढ़ने का शौक उत्पन्न हुआ बल्कि संस्कृतका अपना ज्ञान पूरा करने और तमिल, हिन्दी और उर्दूका अभ्यास करनेकी रुचि भी जगी। तमिल इसलिए कि दक्षिण आफ्रिकामें अनेक तमिलभाषियोंसे मेरा सम्पर्क था और उर्दू इसलिए कि बहुतसे मुसलमानोंसे मुझे काम पड़ता था। दक्षिण आफ्रिकाकी जेलोंमें मेरी पढ़नेकी अभिरुचि तीव्र हो गई थी; इतनी कि दक्षिण आफ्रिकाके अपने अन्तिम कारावासके दौरान मीआद पूरी होनेसे पहले ही छोड़ दिये जानेपर मुझे बहुत दुःख हुआ।

इसलिए जब हिन्दुस्तानमें ऐसा अवसर आया, मैंने उसका सहर्ष स्वागत किया। मैंने यरवदामें अध्ययनका एक कठिन-सा कार्यक्रम तैयार कर लिया था, जिसे पूरा करने के लिए छ: वर्ष भी काफी नहीं थे। प्रथम तीन मासतक मुझे यह धुँधली-सी आशा थी कि भारत समयकी चुनौती स्वीकार करेगा और विदेशी कपड़ोंके बहिष्कारका कार्यक्रम पूरा करके जेलोंके दरवाजे खोल देगा। परन्तु मुझे शीघ्र ही मालूम हो गया कि ऐसा नहीं होगा। मैंने फौरन देख लिया कि ऐसा करनेके लिए परिश्रमके साथ शान्तिपूर्वक संगठन करने की जरूरत है, जिसमें देशको पाँच वर्ष से कम नहीं लगेंगे। सचमुच स्वराज्यके कारण न सही, फिर भी यदि लोगोंके शान्तिमय रचनात्मक कार्यके परिणामस्वरूप भी मैं जल्दी छूट जाता तो यह मंजूर था; किन्तु अन्यथा मीआद पूरी होनेसे पहले छूटनेकी मुझे लेशमात्र इच्छा नहीं थी। इसलिए जर्जरित शरीरवाला चौवन वर्षका बूढ़ा होनेपर भी, मैंने चौबीस वर्षीय तरुणके उत्साहसे अध्ययन शुरू किया। मैं अपने समयके एक-एक क्षणका उपयोग करता था और आशा करता था कि जब छूटूँगा तबतक उर्दू और तमिलका खासा पण्डित बन जाऊँगा और संस्कृतका भी अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लूँगा। मैं अवश्य ही संस्कृतके मूल ग्रन्थ पढ़नेकी योग्यता प्राप्त कर लेनेकी अपनी कामना पूरी कर लेता। परन्तु ऐसा होना बदा नहीं था। दुर्भाग्यसे बीमारी आ गई। उसके परिणामस्वरूप मैं छूट गया और मेरे अध्ययनमें विघ्न पड़ गया। फिर भी इस अवधिमें मैं कितना पढ़ सका, इसकी कल्पना पाठकोंको नीचे दी हुई सूचीसे हो जायेगी:

'द कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ स्कॉटलैंड'; 'द मास्टर ऐंड हिज़ टीचिंग'; 'आर्म ऑफ गॉड'; 'क्रिश्चियनिटी इन प्रैक्टिस'; तुलसी-कृत 'रामायण' (हिन्दी); 'सत्याग्रह और असहयोग' (हिन्दी); 'कुरान'; 'द वे टु बिगिन लाइफ'; लूशियन-कृत 'ट्रिप्स टु द मून'; ठाकोर-कृत 'इंडियन एडमिनिस्ट्रेशन'; 'नेचुरल हिस्ट्री ऑफ बर्ड्स'; 'द यंग क्रूसेडर'; 'बाइबिल व्यू ऑफ द वर्ल्ड मार्टियर्स'; फेरर-रचित 'सीकर्स आफ्टर गॉड', 'मिस्रकुमारी' (गुजराती); 'स्टोरीज़ फ्रॉम द हिस्ट्री ऑफ रोम'; 'टॉम