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वास्तविकताएँ

है। यदि हम देशसे दरिद्रताका मुँह काला कर देना चाहते हैं, तो चरखेके सिवा दूसरी कोई रामबाण दवा नहीं है।

मेरे प्रस्ताव से नीचे लिखी बातें फलित होती हैं:

(क) स्वराज्यवादी, कांग्रेस या अपरिवर्तनवादियोंकी तरफसे बिना किसी विरोध के अपना दल संगठित करनेको स्वतन्त्र होंगे।

(ख) दूसरी राजनीतिक संस्थाओंके सदस्य कांग्रेसमें शरीक होनेके लिए निमन्त्रित किये जायें, इसके लिए उन्हें राजी किया जाये।

(ग) अपरिवर्तनवादियोंको कौंसिल प्रवेशके खिलाफ जाहिरा तौरपर या दबे-छिपे आन्दोलन करनेसे मना कर दिया जाये।

(घ) जिन लोगोंका बाकी चार बहिष्कारों में व्यक्तिशः कोई विश्वास न हो वे पूरी आजादी के साथ यह मानकर चल सकते हैं कि ये बहिष्कार थे ही नहीं और उनके इस व्यवहारसे उनकी प्रतिष्ठापर कोई आँच नहीं आयेगी। इस तरह असहयोगी वकील यदि चाहें तो फिरसे वकालत शुरू कर सकते हैं और खिताबधारी, सरकारी स्कूलोंके शिक्षक आदि कांग्रेसमें शरीक होने और उसके पदाधिकारी होने के पात्र समझे जायेंगे।

इस तजवीजके मुताबिक देशके तमाम राजनीतिक दल मिल-जुलकर [राष्ट्र के] आन्तरिक विकासके लिए एक साथ काम कर सकते हैं। इस तरह कांग्रेस तमाम राजनीतिक दलोंको अपने मंचपर सम्मिलित होनेका खासा मौका देती है और कांग्रेस के बाहर स्वराज्यकी एक ऐसी योजना तैयार करनेका मौका देती है जिसे सब मंजूर कर सकें और जो सरकारको पेश की जा सके। मेरी निजी राय तो यह है कि अभी ऐसी तजवीज पेश करने का समय नहीं आया है। मैं तो यह मानता हूँ कि यदि हम सब मिलकर एक साथ पूर्वोक्त रचनात्मक कार्यक्रमको सफल बनानेका उद्योग करें तो उससे हमारी आन्तरिक शक्ति आशातीत रूपसे बढ़ जायेगी। पर देशके उन बहुतसे-सज्जनोंकी राय, जो अबतक लोगोंके अगुआ रहे हैं, इसके विपरीत है। जो भी हो, कमसे-कम हमारे सुभीते के लिए तो एक स्वराज्य-योजनाकी जरूरत है ही। पाठक जानते ही होंगे कि इस मामले में मैं तो बाबू भगवानदासके विचारोंका पूरी तरह कायल हो गया हूँ। अतएव इसके लिए यदि कोई परिषद् होगी और उसमें मेरी हाजिरीकी जरूरत होगी तो उसमें हाजिर होकर उस योजनाको बनानेमें मैं जरूर मदद दूँगा। इस कामको कांग्रेस के बाहर रखकर चलानेपर जो मैं जोर दे रहा हूँ, उसका सबब यह है कि मैं पूरे एक सालतक कांग्रेसको सिर्फ आन्तरिक विकासके काममें लगाये रखना चाहता हूँ। जब हम अपने इस काम में काफी परिमाणमें सफलता प्राप्त कर चुकेंगे तब कांग्रेस शौकसे बाहरी राजनीतिक हलचलोंमें भी भाग ले सकती है।

अब सवाल है कि यदि यह प्रस्ताव मंजूर न हुआ और देशके तमाम राजनीतिक दलोंको कांग्रेसके अन्दर एकत्र करना मुश्किल हुआ और हमारे और स्वराज्यवादियोंके बीचकी इस खाईको पाटना नामुमकिन हुआ तो फिर क्या होगा? मेरा जवाब सीधा है। यदि सारा झगड़ा कांग्रेसपर कब्जा करनेके लिए ही हो तो मैं उसमें