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८६. जेलके अनुभव-११ [चालू]

मेरा पठन [--२]

मेरा उर्दूका अध्ययन भी 'महाभारत' की तरह ही चित्ताकर्षक सिद्ध हुआ। मैं ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता गया, त्यों-त्यों वह मेरे दिमागपर अधिक छाने लगा। दो-तीन महीने में उर्दूपर अच्छा अधिकार प्राप्त कर लूँगा, ऐसी मूर्खतापूर्ण धारणाके साथ उसके अध्ययनमें मैं कुछ हलके मनसे प्रवृत्त हुआ। परन्तु थोड़े ही दिनोंमें मुझे अपनी भूल समझमें आ गई और मैंने देखा कि इस भाषाको हिन्दीसे बिलकुल ही अलग कर दिया गया है और उसे ऐसा बनानेकी तरफ रुझान बढ़ता जा रहा है। परन्तु इस एहसाससे उर्दू साहित्यको पढ़ने और समझनेका मेरा निश्चय और भी दृढ़ हो गया। मैं उर्दू पढ़नेके लिए रोज लगभग तीन घंटे देने लगा। उर्दू लेखकोंने हिन्दूमुसलमानोंमें प्रचलित शब्दोंका त्याग करके फारसी और अरबी शब्दोंका उपयोग जानबूझकर बढ़ा दिया है। दोनों भाषाओंके सामान्य व्याकरण तकका उपयोग करना छोड़कर, उन्होंने अरबी और फारसीके व्याकरणको अपना लिया है। इसके परिणाम-स्वरूप, मुसलमानी विचार-परम्परासे परिचित रहने के इच्छुक बेचारे देश-प्रेमियोंको उर्दूका अध्ययन एक बिलकुल भिन्न और नई भाषाके रूपमें ही करना पड़ेगा। मैं जानता हूँ कि हिन्दी के लेखकोंने भी इस मामलेमें इससे कुछ अच्छा काम नहीं किया है; हिन्दीको बिलकुल एक अलग भाषा बना देनेके लिए कुछ कम कोशिश नहीं की गई है। हाँ, मैं यह जरूर सोचता था कि यह बुराई अभीतक बहुत गहरी नहीं गई है और हिन्दी और उर्दूको अलग कर डालनेकी वृत्ति केवल थोड़े समय ही चलेगी। परन्तु अब देखता हूँ कि यदि हमें हिन्दुस्तान के लिए हिन्दी और उर्दूको मिला-जुलाकर एक सर्वसामान्य राष्ट्रीय भाषा बनानी हो तो आजकल एक-दूसरेसे अलग बहते दिखाई देनेवाले इन दो प्रवाहोंको एक करनेकी दिशामें लम्बे समयतक विशेष प्रयत्न करने पड़ेंगे। इसके बावजूद, मैं मानता हूँ कि हिन्दूको अपनी शिक्षा पूरी करनेके लिए शिष्ट उर्दू जान लेनेकी जितनी जरूरत है, उतनी ही मुसलमानको शिष्ट हिन्दी जान लेनेकी है। यह काम जल्दी ही आरम्भ कर दिया जाये तो बिलकुल आसान है। ऐसे अध्ययनसे कोई आर्थिक लाभ भले ही न हो और पश्चिमके ज्ञान-भण्डारके कपाट भी भले ही इससे न खुलें; परन्तु राष्ट्रीय दृष्टिसे इसकी उपयोगिता अमूल्य है। उर्दूके गहरे अध्ययनसे मुझे लाभ ही पहुँचा है। मैं चाहता हूँ कि मैं यह अध्ययन अब भी पूरा कर सकूँ।

दो वर्ष पहले मैं मुसलमानोंके मानसको जितना जानता था उसकी अपेक्षा आज कहीं अधिक जानता हूँ। मुझे उर्दू साहित्यके धार्मिक पहलूमें ज्यादा दिलचस्पी थी। इसलिए ज्यों ही सम्भव हुआ, मैं उर्दूकी धार्मिक पुस्तकों में डूब गया। नसीबने तो हमेशा मुझे मदद दी ही है। मौलाना हसरत मोहानीने[१] भाई मंजर अलीको 'उस्ब-ए-

  1. १८७५-१९५१; राष्ट्रवादी मुसलमान नेता, खिलाफत आन्दोलनमें सक्रिय भाग लिया।