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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सामने इस रूपमें प्रस्तुत कर देते हैं जिसका कोई अनुकरण ही नहीं कर सकता। उन्होंने अर्ध-सभ्यों, ईसाइयों और मुसलमानों--तीनोंकी संस्कृतियोंका विवेचन इतने विस्तारसे किया है कि हम उसके अध्ययनके बाद इनके विषय में अपनी राय स्वयं बना सकते हैं। उनका अपना मत हमारा ध्यान खींचता है, परन्तु एक इतिहासकारके नाते उन्हें अपने कर्त्तव्यका बड़ा खयाल है। अपने पासके तमाम ब्योरे पाठकके सामने सच्चाई के साथ रखकर वे पाठकको अपना मत बनानेका अवसर देते हैं।

मोटले दूसरी ही तरहके इतिहासकार हैं। गिबन एक बड़े साम्राज्यके पतन और नाशके कारणोंकी खोज करते हैं, तो मोटले एक छोटेसे प्रजातन्त्रकी कहानीमें अपने प्रिय नायककी जीवन-कथा उभारते चलते हैं। गिबनके पात्र एक अतुल शक्तिशाली साम्राज्यकी कथाके सामने गौण बन जाते हैं। मोटले जो एक राज्य [हॉलैंड] की कहानी कहते हैं, वह एक ही व्यक्तिके जीवनकी कहानीकी कड़ियों में पिरोयी हुई, उसीके अधीन चलती है। उस गणतन्त्रका सारा इतिहास विलियम द साइलेंटमें समा जाता है।

इन दो इतिहास-ग्रन्थोंके साथ लॉर्ड रोजबरी द्वारा लिखित 'लाइफ ऑफ पिट' जोड़ दीजिए तो फिर आप भी मेरी ही तरह कहेंगे कि तथ्य और कल्पनाके बीचका भेद वास्तव में बहुत ही थोड़ा है; और तथ्योंके भी कमसे कम दो पहलू तो होते ही हैं; अथवा जैसा कि कानूनके पण्डित कहते हैं, तथ्य भी तो आखिर कुछ मतोंको ही पेश करते हैं। परन्तु इतिहास हमारी जातिके विकास में किस तरह सहायक हो सकता है, इस दृष्टिसे इतिहासके मूल्य के बारेमें अपने विचारोंपर पाठकोंका ध्यान मैं रोके रखना नहीं चाहता। मैं स्वयं तो इस कहावतको मानता हूँ कि जिस जातिका इतिहास नहीं, वह सुखी है। मेरी प्रिय मान्यता तो यह है कि हमारे हिन्दू पूर्वजोंने इतिहासका जो अर्थ आजकल समझा जाता है उस अर्थ में इतिहास लिखने की ओर ध्यान ही नहीं दिया बल्कि छोटी-छोटी बातोंका आधार लेकर तत्त्वज्ञानके प्रासाद रचे और हमारे लिए इस सवालको हल कर दिया है। 'महाभारत' ऐसा ही ग्रन्थ है; और मैं तो गिबन और मोटलेको 'महाभारत' के घटिया संस्करण ही मानूँगा। 'महाभारत' का अमर किन्तु अज्ञात ग्रन्थकार अपनी गाथामें अलौकिक तत्त्वोंको इस ढंगसे मिला देता है कि उसके शाब्दिक अर्थसे चिपटे रहने के विरुद्ध आपको पर्याप्त चेतावनी मिल जाती है। गिबन और मोटले आपके दिलपर यह बात जमानेके लिए कि वे हमें सच्ची घटनाएँ और केवल सच्ची घटनाएँ ही बता रहे हैं, व्यर्थ ही जान मारते हैं। लॉर्ड रोजबरी इससे आपको बचा लेते हैं और कहते हैं कि जो अन्तिम शब्द पिटके कहे बताये जाते हैं, उनके बारेमें खुद उनका बावर्ची ही दूसरी बात कहता है। इन सारी गाथाओं का सारांश इतना ही है: नाम-रूप गौण वस्तु है। वे तो आते-जाते रहते हैं। जो शाश्वत है और इसलिए महत्त्वपूर्ण है, वह मात्र घटनाओंको दर्ज करनेवाले इतिहासकारकी पकड़ में नहीं आता। सत्य इतिहाससे परे है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया,११-९-१९२४