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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अर्थात् यह तरीका मौलिक है। उसे सजीव ढंगसे व्यक्त करने लायक भाषा मेरे पास नहीं है और इसीलिए उसमें अस्पष्टता आ जाती है। पर इतनी बात तो आसानी से समझ में आ जाती है कि यदि पदपर बने रहनेसे घृणा पैदा होती हो तो पदसे चिपके न रहें और यदि कोई पद आपको अनायास ही मिल जाये अर्थात् इस कारण से मिले कि लोकमत बहुत प्रबल रूपसे आपके पक्षमें है तो उसे ग्रहण किये रहें। मुझे इस बातमें तनिक भी शंका नहीं है कि सभी प्रान्तोंकी जनता उन्हीं लोगोंका साथ देगी जो मौजूदा सरकार के बिलकुल खिलाफ खड़े हैं और जनताकी सेवाकी खातिर बड़े से बड़ा त्याग करने को तैयार हैं। फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ऐसे सेवक कांग्रेससे बाहर हैं या इसके अन्दर।

हृदयसे आपका,
मो० क० गांधी

[अंग्रेजीसे]

महादेव देसाई की हस्तलिखित डायरीसे।

सौजन्य: नारायण देसाई

८८. पत्र: इन्द्र विद्यावाचस्पतिको

साबरमती
भाद्र शुक्ल १३ [११ सितम्बर, १९२४][१]

चि० इन्द्र,

तुमारा खत मुझे मीला है। भोपालके बारेमें मैं सविस्तर हकीकत चाहता हुँ। अत्याचारोंकी फेरिस्त अगर मील सके तो मैं इस बारेमें जो कुछ हो सकता है तुरंत करूँगा।

मोहनदासके आशीर्वाद

[पुनश्च:]

राय साहबका पत्र आ गया है। मौलाना साहबके खत या तारकी राह देखता हुं।

मूल पत्र (सी० डब्लू० ४८६१) की प्रतिसे।

सौजन्य: चन्द्रगुप्त विद्यालंकार

  1. डाककी मुहर से।