१३१. पत्र: जवाहरलाल नेहरूको[१]
[१९ सितम्बर, १९२४]
तुम्हें स्तब्ध नहीं होना चाहिए, बल्कि खुशी मनाओ कि ईश्वर मुझे अपना कर्त्तव्य-पालन करनेका बल और आदेश दे रहा है। मैं और कुछ कर ही नहीं सकता था। असहयोग के प्रवर्तककी हैसियतसे मेरे कन्धोंपर अधिक जिम्मेदारी है। लखनऊ और कानपुर के बारेमें अपने विचार मुझे जरूर लिख भेजो। मुझे यह प्याला पूरा पी लेने दो। मुझे पूर्ण आन्तरिक शान्ति है।
हृदयसे तुम्हारा,
मो० क० गाँधी
ए बंच ऑफ ओल्ड लेटर्स
१३२. पत्र: लक्ष्मीको
[१९ सितम्बर, १९२४][२]
यह पत्र भी सबके लिए है। लेकिन बच्चोंकी तरह लक्ष्मीको अच्छी लड़की कहूँ या बुरी? वह वचन तो देती है पर पत्र नहीं लिखती--यह कैसी बात? मैं तो तुमसे सुन्दर अक्षरोंमें लिखे पत्रकी उम्मीद करता हूँ। मैं उपवास में भी सब बच्चोंको याद करता हूँ और मेरे मनमें प्रश्न उठते हैं, "क्या सब बच्चे नियमसे कातते हैं? पढ़ते हैं? सच बोलते हैं? नियमों का पालन करते हैं?" मुझे इन सब प्रश्नोंका उत्तर कौन देगा?
मुझे उपवाससे बहुत शान्ति मिलती है। मेरी चिन्ता किसीको भी नहीं करनी चाहिए।
बापूके आशीर्वाद
सत्याग्रह आश्रम, साबरमती
गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ५६४५) से।
सौजन्य: छगनलाल गांधी