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१५८. पत्र: सरलादेवी चौधरानीको

दिल्ली
२४ सितम्बर, १९२४

मेरा प्रायश्चित्त दूसरोंके पाप-शोधन के लिए नहीं है। यह उस गलती के लिए है जो सम्भवतः मुझसे हो गई हो।...तुम ऐसा क्यों मान लेती हो कि मैंने ईसाइयोंके उदाहरणोंसे प्रेरणा ली है। अगर लेता भी तो इसमें मुझे कोई लज्जा न होती; किन्तु असलमें इस प्रायश्चित्तसे इसका कोई सम्बन्ध नहीं है।

[ अंग्रेजीसे ]
ट्रिब्यून, २७-९-१९२४

१५९. वक्तव्य: समाचारपत्रोंको[१]


दिल्ली
२४ सितम्बर, १९२४

मेरे लिए यह बड़े दुःखकी बात है कि मैं आगामी सम्मेलनमें शरीक नहीं हो सकूँगा। मैं जानता हूँ कि मेरा उपवास खुद ही सम्मेलनको अपना कार्य जिस वातावरणमें करना चाहिए, उसमें एक बाधा है। मेरी उपस्थिति तो और भी अधिक बाधक होगी। लेकिन, यद्यपि मुझे वहाँ शरीरतः उपस्थित नहीं रहना चाहिए, फिर भी मेरी आत्मा तो वहीं रहेगी।

यह सम्मेलन बुलानेका कारण मेरा उपवास ही है। यदि यह हमें आत्म-निरीक्षण करने, स्पष्टवादिता, निर्भीकता और सचाईसे काम लेनेकी प्रेरणा दे सके, अगर इससे हममें अनावश्यक बातोंको छोड़ सकने और सिर्फ आवश्यक बातोंपर ही आग्रह करनेकी वृत्ति आ सके तो मुझे बहुत प्रसन्नता होगी। किन्तु, यदि इसके कारण एक भी हिन्दू या मुसलमान उस चीजमें से कुछ छोड़नेको बाध्य होता है, जिसे वह अपना सिद्धान्त मानता है तो मुझे बहुत दुःख होगा। अगर सम्मेलनका परिणाम पैबन्द और थेगली लगी कृत्रिम शान्तिके रूपमें प्रकट होता है, तो सम्मेलन निष्फल ही साबित होगा। उसका नतीजा कुछ भी नहीं निकलेगा। जिस चीजकी जरूरत है वह है हृदयकी एकता और यह तभी आ सकती है जब हर आदमी अपने हृदयकी बात कहे और हृदयसे कहे। अगर मुसलमान ऐसा मानते हों कि मन्दिरोंकी पवित्रता भंग करना उनका कर्त्तव्य है, यदि वे समझते हों कि जो व्यक्ति अपने हृदयकी प्रेरणापर

  1. यह वक्तव्य २६ सितम्बर, १९२४ को दिल्लीमें होनेवाले एकता सम्मेलनके सम्बन्धमें दिया गया था।