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पाठकोंसे

उचित भी है। परन्तु मैंने तो यह दिखानेका प्रयत्न किया है कि तलवार चलानेवालेका भी क्षय ही होगा। तलवारसे मनुष्य किसको बचा सकता है, किसको मार सकता है? आत्मबलके सामने तलवारबल तृणवत् है। अहिंसा आत्माका बल है; तलवार शरीरका बल है। तलवारका उपयोग करके आत्मा शरीरवत् बनती है। अहिंसाका उपयोग करके आत्मा आत्मवत् बनती है। जो इस बातको न समझ सकें उन्हें तो तलवार हाथमें लेकर भी अपने आश्रितोंकी रक्षा करनी ही चाहिए।

ऐसा अनमोल अहिंसा-धर्म मैं शब्दोंके द्वारा प्रकट नहीं कर सकता। खुद पालन करके ही उसका पालन कराया जा सकता है। इसीलिए मैं इस समय इस धर्मका पालन कर रहा हूँ। मेरे मन्दिरोंको तोड़नेवाले मुसलमानको भी मैं तलवारसे न मारूँगा। उसपर मैं क्रोध भी न करूँगा। उसे भी मैं केवल प्रेमसे ही जीतूँगा।

मैंने लिखा है कि हिन्दुस्तानमें यदि एक ही शुद्ध प्रेमी पैदा हो जाये तो वह स्वधर्मकी रक्षा कर सकता है। मैं ऐसा ही शुद्ध प्रेमी बनना चाहता हूँ। लिखता रहा हूँ कि आप भी ऐसे बनें।

मैं जानता हूँ कि मेरे अन्दर बहुत प्रेम है। पर प्रेमकी सीमा ही कहाँ है? मैं यह भी जानता हूँ कि मेरा प्रेम असीम नहीं है। मैं साँपके साथ कहाँ खेल सकता हूँ? मुझे पूरा विश्वास है कि अहिंसा-मूर्तिके सामने साँप भी शान्त हो जाता है।

उपवास करके मैं अपनेको परख रहा हूँ; विशेष प्रेमकी सामर्थ्य अर्जित कर रहा हूँ। मैं अपना कर्तव्य पूरा करके आपको आपका कर्तव्य बताना चाहता हूँ। आप यदि मेरे साथ उपवास करें तो यह निरर्थक है। उसके लिए समय, अधिकार, आदिकी जरूरत रहती है। आपका कर्तव्य तो यही है कि जो तीन चीज मैं भिन्न-भिन्न तरीकोंसे आपके सामने पेश कर रहा हूँ, उनको साधिए। मुझे विश्वास है कि उनके द्वारा दूसरी बहुत-सी बातें अपने-आप सध जायेंगी।

मेरे उपावासके औचित्यपर शंका करनेके बदले आप ईश्वरसे यही प्रार्थना कीजिए कि मेरा उपवास निर्विघ्न पूरा हो जाये, मैं फिर 'नवजीवन' के द्वारा आपकी सेवा करने लगूँ और मेरे शब्दोंमें अधिक बल आये।

आपका सेवक,
मोहनदास गांधी

[ गुजराती से ]
नवजीवन, २८-९-१९२४