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कमरेसे इतना नजदीक है कि आवाज सुनाई पड़ सकती है; परन्तु एक मिनटके लिए वहाँके काममें व्यवधान न पड़ा और न मौलानाने ही अपने सम्पादकीय कर्त्तव्योंमें खलल आने दिया। सार्वजनिक कर्त्तव्य तो कोई भी मुल्तवी नहीं किया गया। मौलाना शौकत अली तो ख्वाबमें भी यह मानने को तैयार नहीं थे कि मैं अपना रामजस कालेज जाना मुल्तवी करूँ और एक सच्चे सिपाहीकी तरह वे मुजफ्फरनगरके हिन्दुओं को दिये गये वादेके अनुसार नियत समयपर उनसे मिले, हालाँकि उन्हें बी-अम्माँकी मृत्युके लगभग तुरन्त बाद ही उनसे मिलने जाना पड़ा। यह सब जैसा कि होना चाहिए था, वैसा ही हुआ। जन्म और मरण दो भिन्न दशाएँ नहीं हैं, बल्कि एक ही दशाके दो भिन्न-भिन्न पहलू हैं। न मृत्युसे दुखी होने की जरूरत है, न जन्मसे खुशी मनानेकी।

स्वर्गीय पारसी रुस्तमजी

रुस्तमजी जीवनजी घोरखोदूकी मृत्युका दुःखद समाचार मुझे डर्बनसे भेजे गये उनके पुत्रके तारसे मिला है। मेरे लिए यह एक व्यक्तिगत क्षति है। वे एक महत्त्वपूर्ण मुवक्किल, प्रियमित्र और निष्ठावान कार्यकर्त्ता थे। वे जितने सच्चे भारतीय थे, उतने ही सच्चे पारसी भी थे और उतने ही खरे आदमी भी थे। वे एक चुस्त पारसी थे, लेकिन उनका पारसी धर्म मानवताके समान ही व्यापक और उदार था। वे बिना किसी भेद-भाव के सभीको मित्र बना लेते थे। उनका व्यवहार सरकारी अधिकारियोंके साथ मीठा होता था, लेकिन अवसर पड़नेपर वे दृढ़ रुख अपना सकते थे। उनका मौखिक वचन वैसा ही भरोसेके काबिल होता था जैसी कि उनकी हुण्डियाँ। वे शेरकी तरह बहादुर थे। वे आसानीसे कोई वचन नहीं देते थे, लेकिन एक बार दे देने पर वे उसे निभाने का पूरा प्रयत्न करते थे। एक बार अपनेको सत्याग्रही घोषित कर देनेके बाद, फिर वे आन्दोलनकी कठिनतम घड़ियोंमें भी एक क्षणके लिए विचलित नहीं हुए, उस समय भी नहीं जबकि ऐसा लगता था कि संघर्षका कभी अन्त ही नहीं आनेवाला है। जिस समय उन्होंने [ सत्याग्रहकी ] शपथ ली, उस समय वे जवानीकी उम्र पार कर चुके थे और व्यावसायिक व्यस्तताएँ भी उनकी कम नहीं थीं। लेकिन उन्होंने आपत्तियोंकी परवाह नहीं की। उन्होंने बिना किसी शिकायतके सब नुकसान सहे। उन्होंने लगभग अपनी सामर्थ्यसे ज्यादा दिया, लेकिन कभी बिना विचारे नहीं। वे निष्पक्ष और समान भावसे दान देते थे। उन्होंने मसजिदों, मदरसों और राष्ट्रीय स्कूलों, सभीको दान दिया। वे समस्त दक्षिण आफ्रिकामें पारसी रुस्तमजीके नामसे विख्यात थे और कितने ही नौजवान इन्हीं पारसी रुस्तमजीके ही कारण उन्नति कर सके थे। व्यक्तिगत तौरपर मैं उनका बहुत ऋणी हूँ। दक्षिण आफ्रिकामें मेरे बहुत-से मित्र हैं, लेकिन उनसे ज्यादा सौहार्द मैंने किसीमें नहीं देखा। जब क्रूद्ध भीड़ मेरे पीछे पड़ी थी, उस समय उन्होंने मुझे अपने यहाँ आश्रय दिया था। उनका घर मेरे और मेरे स्वजनोंके लिए शरणस्थल था। लोग आश्चर्य करते हैं कि मैं पारसियोंका इतना पक्ष क्यों लेता हूँ। मैं पक्षपात नहीं करता, लेकिन मैं ईश्वरका धन्यवाद करता हूँ कि मैं पारसियोंके सराहनीय गुणोंकी साक्षी दे सकता हूँ। जबतक मुझे पारसी रुस्तमजीकी याद रहेगी तबतक मेरे मनमें पारसियोंके लिए आदर मिश्रित