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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

है, जो आग सोनेके लिए करती है। १९२१ के दमनका जवाब हमने सविनय अवज्ञाके द्वारा दिया था और सरकारसे कहा था कि जो तुमसे हो सके, सो कर लो। पर आज हमें अपमानका यह घूँट पी जाना है। हम सविनय अवज्ञाके लिए तैयार नहीं हैं। अभी तो हम उसकी तैयारी ही कर सकते हैं, सविनय अवज्ञाकी तैयारीका मतलब है, अनुशासन, संयम, अहिंसापर चलने, किन्तु साथ ही बुराईका प्रतिरोध करनेकी भावना, मिल-जुलकर चलनेकी शक्ति और सबसे बढ़कर विचारपूर्वक और प्रसन्नता के साथ ईश्वरके प्रकट नियमका तथा मनुष्यके उन कानूनों का पालन करना जो ईश्वरीय कानूनकी मदद और तरक्कीके लिए बनाये गये हों। मगर बदकिस्मती है कि हममें अपने उद्देश्यके अनुरूप न पर्याप्त अनुशासन है और न संयम; हम या तो हिंसापूर्ण हैं या हमारी अहिंसामें बुराईके प्रतिरोधकी वृत्ति नहीं होती; हममें मिल-जुलकर चलने की पर्याप्त प्रवृत्ति भी नहीं है और हम ईश्वर अथवा मनुष्यके जिस कानूनका भी पालन करते हैं, मजबूर होकर ही करते हैं। हिन्दू और मुसलमान तो अपने आपसी व्यवहारमें रोज-रोज बड़ी धृष्टताके साथ ईश्वर और मनुष्य दोनोंके कानूनोंकी अवज्ञा करते हैं। यह सविनय अवज्ञाका, जो शोषितोंका एकमात्र अमोघ अस्त्र है, वातावरण नहीं है। दूसरा रास्ता, निस्सन्देह, हिंसा है और लगता है, हमारे बीच उसके अनुकूल वातावरण है। हिन्दू-मुस्लिम झगड़े हमें उसकी तालीम दे रहे हैं और जो लोग मानते हैं कि भारतवर्षका उद्धार हिंसाके ही द्वारा हो सकता है, उन्हें हमारी इन आपसकी खुली लड़ाइयोंपर प्रसन्न होनेका अधिकार है। लेकिन मैं जो हिंसा-पथके पथिक हैं, उनसे कहता हूँ कि 'आप भारतवर्षकी प्रगतिको रोक रहे हैं। अगर आपके दिलमें देशके करोड़ों नंगे-भूखे लोगोंके लिए कुछ भी रहम हो या उनके भलेका खयाल हो, तो जान रखिए, अपने हिंसात्मक साधनोंसे आप उनकी कुछ भी सेवा न करेंगे। जिन्हें आप अपदस्थ करना चाहते हैं, वे आपकी बनिस्बत कहीं अच्छे शस्त्रोंसे सुसज्जित हैं और अनेक-गुना सुसंगठित हैं। आप अपने प्राणोंकी परवाह भले ही न करें, पर आप अपने देश के उन भाइयोंकी उपेक्षा नहीं कर सकते, जो शहीदोंकी मौत मरनेकी स्वाहिश नहीं रखते। आप जानते ही हैं कि यह सरकार अपनी रक्षाके लिए जलियाँवाला बाग-जैसे हत्याकाण्डको एक न्यायोचित साधन माननेवाली है। और देशोंकी बात मैं नहीं कह सकता, पर इस देशमें तो हिंसाके फूलने-फलनेका कोई मौका नहीं हैं। भारतवर्ष तो निर्विवाद रूपसे अहिंसाका सबसे बड़ा हामी और सर्वोत्तम आश्रयस्थान है। सो अगर आप अपने जीवनको अहिंसाके कार्यमें कुरबान करेंगे तो यह क्या उसका ज्यादा अच्छा उपयोग न होगा?'

लेकिन मैं जानता हूँ कि हिंसात्मक क्रान्तिकारियोंसे की गई मेरी यह प्रार्थना उतनी ही निष्फल होगी जितनी कि हिंसाकी राह चलनेवाली इस अराजक सरकारसे की गई मेरी प्रार्थना हो सकती है।

ऐसी हालतमें हमें इसका उपाय खोजना है और हिंसाकी राह चलनेवाली इस सरकार और क्रान्तिकारी समुदाय दोनोंको यह दिखला देना जरूरी है कि एक ऐसी भी शक्ति है जो उनके हिंसाबलसे ज्यादा प्रभावकारी है।