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भाषण: बेलगांवकी अस्पृश्यता-परिषद् में

अस्पृश्यता निवारणको मैंने जो कांग्रेसका एक कार्य माना है, वह केवल राजनीतिक हेतु पूरा करनेके लिए नहीं है। वह हेतु तो तुच्छ है, स्थायी नहीं। स्थायी बात तो यह है कि हिन्दू धर्ममें---जिसे कि मैं सर्वोपरि मानता हूँ---अस्पृश्यता जैसी भारी बुराई हो नहीं सकती। स्थूल स्वराज्यके लिए मैं अन्त्यजोंको फुसलाना नहीं चाहता। मुझे जो लगता है कि हिन्दूओंने अस्पृश्यता बरतते रहकर भारी पाप किया है; इस लालचमें उन्हें फँसाना नहीं चाहता। उसका प्रायश्चित उन्हें करना चाहिए। मैं अस्पृश्योंकी 'शुद्धि' जैसी किसी चीज को नहीं मानता। मैं तो अपनी शुद्धिका कायल हूँ। जब मैं स्वयं ही अशुद्ध हूँ तो दूसरेकी शुद्धि क्या करूँगा? मैंने अस्पृश्यताका पाप किया है तो शुद्ध भी मुझे ही होना चाहिए। इसलिए हम जो अस्पृश्यता-निवारणका कार्य कर रहे हैं वह केवल आत्म-शुद्धि है, अस्पृश्योंकी शुद्धि नहीं। मैं तो हिन्दू-धर्मकी इस शैतानियतको निर्मूल करनेकी बात कर रहा हूँ, अस्पृश्योंको फुसलानेकी बात मेरे पास नहीं है।

परन्तु हिन्दू जातिके लिए खान-पानका सवाल जुदा है। मेरे कुटुम्बमें ऐसे लोग हैं, जो मर्यादा-धर्मका पालन करते हैं। वे और किसीके साथ भोजन नहीं करते। उनके लिए खाने-पीनेके बरतन और चूल्हा भी अलहदा चाहिए। मैं नहीं मानता कि इस मर्यादा में अज्ञान, अंधकार या हिन्दू-धर्मका क्षय है। मैं खुद इन बाहरी आचारोंका पालन नहीं करता। मुझसे यदि कोई कहे कि हिन्दू-संसारको इसका अनुकरण करनेकी सलाह दो, तो मैं वैसी सलाह नहीं दूँगा। मालवीयजी मेरे पूज्य हैं, मैं उनका पाद-प्रक्षालन भी करूँगा पर वे मेरे साथ खाना नहीं खाते। ऐसा करके वे मेरे साथ घृणा नहीं करते। हिन्दू-धर्ममें इस मर्यादाका अटल स्थान नहीं है, परन्तु एक खास स्थितिमें वह स्तुत्य मानी गई है। रोटी-बेटी व्यवहारका सम्बन्ध जिस दरजेतक संयमसे है, उस दरजेतक उसका सीमित रहना ठीक ही है। पर यह बात सब जगह सच नहीं है कि किसीके साथ भोजन करनेसे मनुष्यका पतन होता है। मैं नहीं चाहता कि मेरा लड़का जहाँ चाहे और जो चाहे खाना खाता फिरे; क्योंकि आहारका असर आत्मापर पड़ता है। पर यदि संयम या सेवाकी सुविधाके लिए वह किसीके यहाँ कुछ खास चीजें खायें तो मैं नहीं समझता कि वह हिन्दू-धर्मका त्याग करता है। मैं नहीं चाहता कि खान-पानकी जो मर्यादा हिन्दू धर्ममें है, उसका पूरा क्षय हो। सम्भव है कि इस मर्यादाको भी छोड़ देनेका युग आ जाये। ऐसा होनेसे हमारा विनाश नहीं हो जायेगा। आज तो मैं वहींतक जाने के लिए तैयार हूँ, जहाँतक मेरा दिल मानता है। मेरे विचारमें इस युगमें रोटी-बेटीके व्यवहारकी मर्यादाका लोप नहीं आ सकता। मेरी इस वृत्तिके कारण मेरे कितने ही मित्र मुझे दम्भी मानते हैं, पर इसमें किसी तरहका दम्भ नहीं है, स्वामी सत्यदेव और मैं अलीगढ़ जा रहे थे। उन्होंने मुझसे कहा, "आप यह क्या करते हैं? ख्वाजा साहबके यहाँ खायेंगे?" मैंने कहा, "मैं खाऊँगा। आपके लिए यही मर्यादा है कि आप न खायें; लेकिन मेरे लिए ख्वाजा साहबके यहाँ खाद्य वस्तुएँ न खाना पतित होना है। पर यदि आप खायेंगे तो आपका पतन होगा, क्योंकि आप मर्यादाका पालन करते हैं।" स्वामी सत्यदेवके लिए ब्राह्मण बुलाया गया, उसने उनके