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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

पीटसे प्राप्त की हुई चीज दुनियामें कायम नहीं रह सकती। मैं अपनी आँखोंके सामने उस जमानेको आता हुआ देखता हूँ, जब मार-पीटके बलपर कोई भी काम सिद्ध न हो सकेगा।

मैं हिन्दू-धर्मकी उन्नति चाहता हूँ और अस्पृश्योंको अपना बनाना चाहता हूँ। इससे जब कोई भी अछूत अपना धर्म छोड़कर दूसरे धर्ममें जा मिलता है, तब मुझे भारी धक्का पहुँचता है। पर हम करें क्या? हम हिन्दू पतित हो गये हैं। हमारे दिलोंसे त्याग-भाव चला गया, प्रेम-भाव जाता रहा, सच्चा धर्म-भाव नष्ट हो गया। 'गीता' में तो कहा है कि ब्राह्मण और चाण्डालको समान समझो। समानके मानी क्या हैं? यह नहीं कि ब्राह्मण और भंगीका धर्म एक हो जाता है। इसका मतलब यह है कि हम दोनोंको समान न्याय दें---इस हदतक समानता होनी ही चाहिए। मैं भंगियोंकी जरूरतें पूरी करूँगा। भंगीकी तकलीफ तो यह है कि हम उनकी मामूलीसे-मामूली जरूरतें भी पूरी नहीं करते। भंगीको भी सोनेकी जगह तो चाहिए ही, साफ-सुथरी हवा और पानी तो चाहिए ही, भोजन तो चाहिए ही। इतनी बातोंमें तो वे ब्राह्मणके समान ही हैं। जिस भंगीको सेवाकी जरूरत है, जैसे कि किसी भंगीको साँपने काटा हो तो मैं जरूर उसकी सेवा करूँगा। भंगीको यदि मैं अपनी जूठन खिलाऊँ तो मैं ही पतित बनूँगा। इसीसे मैं कहता हूँ कि अस्पृश्यता हिन्दू धर्मका महापाप है।

हाँ, अलबत्ता एक प्रकारकी अस्पृश्यताके लिए हिन्दू-धर्ममें स्थान जरूर है। कोई शख्स मैलेको छूकर जबतक स्नान न कर ले, तबतक उसे अस्पृश्य मानना ठीक ही है। मेरी माँ जब मल-मूत्र साफ करती तब नहाये बिना किसी चीजको छूती न थी। मैं वैष्णव सम्प्रदायका अनुयायी हूँ, इसलिए इतनी अस्पृश्यता---कर्मकी क्षणिक अस्पृश्यताको मैं मानता हूँ। परन्तु जन्मकी अस्पृश्यताको मैं नहीं मानता। जब मैं किसी समय अपने मल-मूत्रको उठानेवाली अपनी माताकी मूर्तिका स्मरण करता हूँ, तब वे मुझे अधिक पूज्य मालूम होती हैं। उसी तरह जब भंगीकी सेवाका विचार करता हूँ, तब मेरी दृष्टिमें वह पूज्य हो जाता है।

मैंने यह कभी नहीं कहा कि अन्त्यजोंके साथ रोटी-बेटीका व्यवहार रखा जाये, हालांकि मैं रोटी-व्यवहार तो रखता हूँ। बेटी-व्यवहारके लिए मेरे पास गुंजाइश नहीं। मैं वानप्रस्थ आश्रम का पालन करता हूँ --संन्यासका पालन करता हूँ या नहीं, सो नहीं कह सकता; क्योंकि कलियुगमें संन्यास धर्मका पालन करना महा कठिन है। मैं तो प्राकृत प्राणी हूँ। मैंने वेदाध्ययन नहीं किया और मैं मोक्षके लायक हूँ या नहीं, इस विषयमें सन्देह है, क्योंकि मैं राग-द्वेषका पूर्ण त्याग नहीं कर पाया हूँ। मैं 'वेद' का उच्चारण पण्डित मालवीयजीकी तरह नहीं कर सकता, उसके कारण मोक्ष न मिले, सो बात नहीं। पर जबतक मेरे अन्दर राग-द्वेष मौजूद है, तबतक मुझे मोक्ष नहीं मिल सकता। इससे मैं संन्यासी चाहे न होऊँ; पर इस बातमें कुछ भी दोष नहीं दिखाई देता कि मेरी स्थितिका हिन्दू सारे संसारके साथ रोटी-व्यवहार रखे। परन्तु जिस दोषके दूर होनेकी आवश्यकता है, वह है अस्पृश्यता। उसमें रोटी-व्यवहारका समावेश नहीं है।