पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 26.pdf/११

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भूमिका

इस खण्डमें १६ जनवरीसे लेकर ३० अप्रैलतक साढ़े तीन महीनेका समय आता है। इस अवधिमें गांधीजीका अधिकांश समय दौरेमें व्यतीत हुआ। खण्डका आरम्भ गुजरातमें हुई कई परिषदोंमें दिये गये भाषणोंसे होता है। फरवरीके आरम्भमें गांधीजीने रावलपिंडी जाकर कोहाटके हिन्दुओं और वहाँकी मुस्लिम आबादीके बीच मेलजोल करानेकी कोशिश की, किन्तु व्यर्थ। वहाँसे लौटकर उन्होंने दक्षिण गुजरात और सौराष्ट्रका दौरा किया और तत्पश्चात् उन्होंने एक माह दक्षिणमें, ज्यादातर त्रावणकोरमें, व्यतीत किया। वहाँ वाइकोममें एक विशेष रूपसे अपमानजनक ढंगकी अस्पृश्यताके विरुद्ध पिछले एक वर्षसे सत्याग्रह चल रहा था। अप्रैलके आरम्भमें उन्होंने सौराष्ट्रका दौरा पूरा किया और अप्रैलके मध्यमें दक्षिण गुजरातका दौरा पूरा किया। २५ अप्रैलको उन्होंने सी० एफ० एन्ड्रयूजको एक पत्रमें लिखा: "मैं एक जगहसे दूसरी जगहका दौरा ही करता रहता हूँ और साँसतक नहीं ले पाया हूँ। बंगालकी आगामी कठिन परीक्षाकी तैयारीके खयालसे मैं चार दिन तिथिलमें रहकर कुछ शक्ति संचित कर रहा हूँ" (पृष्ठ ५३७)। १ मईको वे कलकत्तामें थे।

कांग्रेस अध्यक्षकी हैसियतसे गांधीजीने १९२५ के लिए अपना कार्यक्रम निर्धारित कर लिया था। १६ अप्रैलको 'यंग इंडिया' में लिखते हुए उन्होंने कहा: "मुझे तो अपने-आपको ऐसे कार्यकर्त्ताओंको तैयार करने में लगाना है जो कार्यदक्ष हों, अहिंसापरायण हों, आत्म-त्यागी हों, जो चरखे और खादीमें, हिन्दू-मुस्लिम एकतामें, और यदि वे हिन्दू हों तो अस्पृश्यता-निवारणमें भी जीवन्त विश्वास रखते हों। कमसे-कम इस सालके लिए तो राष्ट्रका यही कार्यक्रम है, दूसरा नहीं" (पृष्ठ ५०५)। गांधीजीका पक्का विश्वास था कि इस तीन-सूत्री कार्यक्रमका सफल कार्यान्वयन ही ऐसी आन्तरिक शक्ति उत्पन्न करनेका एकमात्र साधन था जिसके बिना विधान परिषदोंमें स्वराज्यवादी दलका काम निष्प्रभावी होगा। किन्तु वह अच्छी तरह समझते थे कि यह एक दुष्कर कार्य है। लोग उनकी सभाओंमें बड़ी संख्यामें उपस्थित होते थे, किन्तु कताई और खादीके प्रति गांधीजीके आग्रहका उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। कलकता जाते हुए नागपुर स्टेशनपर उन्हें इस सत्यका प्रत्यक्ष और कटु अनुभव हुआ। प्लेटफार्मपर बहुत बड़ी भीड़ उनके दर्शनोंके लिए इकट्ठी हो गई थी। "वे मेरे दर्शन हर्षविह्वल होकर कर रहे थे। परन्तु उनका यह हर्ष मेरे लिए व्यथा ही था। जबानपर तो मेरा नाम और सिरपर काली टोपी। कैसा भीषण विरोध? कितना असत्य? इस भीड़को साथ लेकर मैं स्वराज्यकी लड़ाई नहीं लड़ सकता" (पृष्ठ ५७२)। इस अनुभवने उन्हें उदास कर दिया, लेकिन हतोत्साह नहीं किया। "यह खादीके प्रति विद्रोह नहीं तो उदासीनता अवश्य है। इसे देखकर खादीके प्रति मेरी श्रद्धा और भी बढ़ जाती है" (पृष्ठ ५७१)। गांधीजीकी रायमें खादी कुछ हदतक बेरोजगारी कम करनेके एक साधनके रूपमें महत्त्व रखती थी, किन्तु इसके अलावा उनकी रायमें खादी