पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 26.pdf/१२

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कार्यक्रमका राजनीतिक महत्त्व भी था जिसे उन्होंने एक अंग्रेज मित्रको इस प्रकार समझाने की कोशिश की: "स्वराज्य शान्तिपूर्ण उपायोंसे तभी मिल सकता है जब, किसी बहुत थोड़ी ही अवधिके लिए और बहुत सामान्य कामके लिए ही क्यों न हो, हिन्दुस्तानकी सारी जनता एक मनसे कोई रचनात्मक और उपयोगी काम करे। ऐसा प्रयत्न राष्ट्रके पूरी तरह जागरूक हो चुकनेकी अपेक्षा तो रखता ही है। यह उद्देश्य केवल चरखेके द्वारा ही साध्य हो सकता है" (पृष्ठ ४७)। तथापि अपने सार्वजनिक भाषणोंमें वह खादीके आर्थिक और मानवके लिए कल्याणकारी फलितार्थोकी ही चर्चा करते थे।

हिन्दू-मुस्लिम समस्या इतनी जटिल हो गई थी कि गांधीजीने फिलहाल उस सम्बन्धमें कुछ न करने में ही बुद्धिमानी मानी। अपने धर्मसंकटको ७ मार्चको मद्रासकी एक सार्वजनिक सभामें स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा: "फिलहाल मैंने इस समस्याको ताकपर रख दिया है, किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि मुझे इसके सुलझनेकी कोई आशा नहीं रही है। जबतक मुझे इसका कोई हल नहीं मिलता तबतक मेरा मस्तिष्क इस समस्यापर विचार करता ही रहेगा। किन्तु मुझे यह बात स्वीकार करनी ही होगी कि मैं कोई ऐसा व्यवहार्य हल, जिसकी आप आशा करते हैं, फिलहाल प्रस्तुत नहीं कर सकता" (पृष्ठ २३९)। उन्होंने 'मेरी स्थिति' (१६-४-१९२५) शीर्षक लेखमें अपनी लाचारी पुन: स्वीकार की: "मैं हिन्दू मुस्लिम एकतामें जान नहीं डाल सकता। सो उसके लिए मुझे कोई प्रत्यक्ष कार्यवाही करनेकी जरूरत नहीं। एक हिन्दूकी हैसियतसे मैं उन तमाम मुसलमानोंकी सेवा करूँगा जो मुझे करने देंगे। जो मेरी सलाह चाहेंगे मैं उन लोगोंको सलाह दूँगा। उन दूसरोंको मैं चिन्ता करना छोड़ देता हूँ जिनके लिए मैं कुछ नहीं कर सकता। लेकिन मुझे अपने मनमें पूर्ण विश्वास है कि एकता जरूर होगी, चाहे वह कुछ घमासान लड़ाइयोंके बाद ही क्यों न हो; किन्तु होगी जरूर" (पृष्ठ ५०६)।

ऐसे पारस्परिक अविश्वासके वातावरणमें गांधीजीने दो सवालोंपर अपने-आपको एक ऐसी स्थितिमें पाया जिसे आसानीसे गलत समझा जा सकता था। गत सितम्बरमें कोहाटके दंगोंके कारणोंकी जाँच करने और दोनों सम्प्रदायोंके बीच मेलजोल स्थापित करनेका काम शौकत अली और गांधीजीने संयुक्त रूपसे करनेका बीड़ा उठाया था। इस जाँच-कार्यमें स्थानीय मुसलमानोंने उनकी मदद करनेसे इनकार कर दिया, और जो भी साक्ष्य उपलब्ध था उसके आधारपर गांधीजी और मौलाना अलग-अलग निर्णयोंपर पहुँचे। इस आपसी मतभेदको सार्वजनिक रूपसे स्वीकार करने में यह खतरा था कि उसे गलत रूपमें पेश किया जायेगा और साम्प्रदायिक तत्त्व उसका नाजायज लाभ उठायेंगे। १९२०-२१ में खिलाफत आन्दोलन आरम्भ होनेके समयसे ही गांधीजी और मौलाना शौकत अलोने मिलजुलकर काम किया था और गांधीजीने जनसाधारण मुसलमानकी सद्भावना जीत ली थी। एक साम्प्रदायिक प्रश्नपर इन दोनों नेताओंके मतभेदका उनके निजी सम्बन्धोंपर असर पड़ता या न पड़ता, लेकिन उसका देशके सामान्य वातावरण पर बुरा असर पड़ना निश्चित था। गांधीजीने मामलेको बड़ी सावधानीके साथ और सम्यक् रूपसे मौलाना और सामान्य जनताके सामने प्रस्तुत किया। अपने आपसी