पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 26.pdf/१६

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दस

रक्षा। फिर तो मनुष्य सारी सृष्टिका प्रभु और स्वामी न रहकर सेवक बन जाता है। मेरी रायमें गाय दयाका जीता-जागता उपदेश है।" (पृष्ठ ५३९) ।

तर्क और भावनाका यह मेल गांधीजीके धार्मिक दृष्टिकोणका सार था। एक मित्रको, जिन्होंने कांग्रेसकी शपथमें ईश्वरके नामके उल्लेखपर आपत्ति उठाई थी, उन्होंने पत्रमें लिखा: "मेरा ईश्वर तो मेरा सत्य और प्रेम है। नीति और सदाचार ईश्वर है। निर्भयता ईश्वर है।...ईश्वर अन्तरात्मा ही है। वह तो नास्तिकोंकी नास्तिकता भी है" (पृष्ठ २१८)। लेकिन स्वयं गांधीजीके लिए ईश्वर एक कोरा सिद्धान्त या अनुमान नहीं था। उसकी उपस्थितिको वे बड़ी गहराईके साथ अनुभव करते थे। "हम कुछ नहीं हैं; सिर्फ वही है; और अगर हम हों तो हमें सदा उसके गुणोंका गान करना चाहिए और उसकी इच्छानुसार चलना चाहिए। आइए, उसकी बंसीकी धुनपर हम नाचें। सब अच्छा ही होगा" (पृष्ठ २१९)। गोरक्षा मंडलकी अध्यक्षता स्वीकार करते हुए उनके मनकी जो अवस्था थी उससे उनकी धार्मिक भावनाको शक्ति प्रकट होती है: "लिखते हुए मेरे हाथ काँप रहे हैं। आँखोंमें आँसू हैं।...जिस प्रकार किसी बालकको खूब खानेकी इच्छा तो हो पर खानेकी शक्ति न होनेके कारण वह फूट-फूट कर रोता है, मेरी स्थिति भी कुछ वैसी है। मैं लोभी हूँ। मैं धर्मकी विजय देखने और उसे संसारके सामने रखने के लिए बड़ा आतुर हूँ।...तूफानी समुद्र में मेरी अभिलाषा-रूपी नैया डोल रही है" (पृष्ठ ३१४-१५)। और भावनाका यह आवेग उनके मनमें एक दिन पहले कन्याकुमारीकी यात्राकी स्मृतिके कारण उमड़ा था। "कन्याकुमारीके दर्शन" शीर्षक लेखमें उन्होंने लिखा: "समुद्रकी लहरोंका मंद और मधुर संगीत तो समाधिमें सहायक होता है।...'गीता'कारका मन-ही-मन स्मरण करके मैं शान्त बैठा रहा" (पृष्ठ ४२०)।