पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 26.pdf/१५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
नौ

है" (पृष्ठ २८५)। एक अन्य सन्दर्भ में उन्होंने स्पष्ट किया है कि वर्ण-व्यवस्था 'जन्मके आधारपर किया गया स्वस्थ कार्य-विभाजन' है (पृष्ठ ५३२)। लेकिन उन्होंने तुरन्त ही यह भी कहा कि जातियों-सम्बन्धी वर्तमान विचार मुल विकृत रूप हैं। गांधीजी अंतर्जातीय भोज या विवाहपर लगे प्रतिबन्धोंको हटानेको आवश्यक सुधार भी नहीं मानते थे। "स्वयं लगाये गये प्रतिबन्धोंका स्वच्छता तथा आध्यात्मिकताकी दृष्टिसे अपना मूल्य है। किन्तु इनका पालन न करनेसे आदमी न तो नरकमें चला जाता है और न इनका पालन करनेसे स्वर्गमें पहुँच जाता है" (पृष्ठ ५६५)। पारम्परिक ब्राह्मण संस्कृतिमें जो चीज गांधीजी बहुत मूल्यवान् मानते थे, वह इन प्रतिबन्धोंमें निहित आत्मसंयमका सिद्धान्त था। "मैं नहीं चाहता कि ब्राह्मणोंको बरबाद करके अब्राह्मण ऊँचे उठे। मैं यह जरूर चाहता हूँ कि वे उस ऊँचाईको पहुँच जायें जहाँ अबतक ब्राह्मण पहुँचे हुए थे" (पृष्ठ ३२७)।

अपने तीन लेखोंमें (शीर्षक ६२, २६७ और ३२०) एक क्रान्तिकारीको मुखातिब करते हुए गांधीजीने स्पष्ट रूपसे और धीरजके साथ उस जीवन-दर्शनका प्रतिपादन किया जिसका वे उपदेश कर रहे थे और स्वयं अमलमें लानेका प्रयत्न कर रहे थे। "किसी शैतानी व्यवस्थाके मुकाबले में सशस्त्र षड्यंत्र रचना मानो शैतानके मुकाबले शैतान खड़ा करना है। पर चूँकि एक ही शैतान मेरे लिए बहुतसे शैतानोंके बराबर है, इसलिए मैं उसकी संख्या न बढ़ने दूँगा। मेरी प्रवृत्ति उद्योगहीन है या वह उद्योगमय है, यह तो आगे चलकर मालूम होगा। यदि तबतक उसके फलस्वरूप एक गज की जगह दो गज सूत कते तो उससे उतना हित तो होगा ही। भीरूता चाहे दार्शनिक हो, चाहे किसी दूसरी तरहकी, मैं उससे घणा करता हूँ" (पष्ठ ४८१-८२)। और उन्होंने मर्त्य लोगोंके धर्ममें तथा अवतारी पुरुषोंके रहस्योंमें बहुत बड़ा अन्तर बताया। "श्रीकृष्णके नामको बीचमें घसीटना फिजूल है। यदि हम उन्हें मानते हों तो हम उन्हें सा ईश्वर माने अथवा फिर बिलकुल न मानें; यदि मानते हैं तो फिर हम उनमें सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता होना मानते हैं। ऐसी शक्ति अवश्य संहार कर सकती है। पर हम तो ठहरे पामर मर्त्य। हम हमेशा भूलें करते रहते हैं और अपने विचार और रायें बदलते रहते हैं। यदि हम 'गीता' के गायक कृष्णकी नकल करेंगे तो हम घोर विपत्तिमें पड़ेंगे" (पृष्ठ ५६३)।

गांधीजी पारम्परिक हिन्दू भावनासे पूरी तरह आप्लावित थे और उसे उन्होंने जिस प्रकार व्यावहारिक और रचनात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करनेकी कोशिश की उसे गोरक्षा सम्बन्धी उनके रुखसे देखा जा सकता है। उन्होंने गायके वधको रोकनेके लिए अन्य सम्प्रदायोंके लोगोंसे लड़नेकी अपेक्षा अपने हिन्दू भाइयोंसे कहा कि वे आदर्श गोशालाएँ और दुग्धशालाएँ स्थापित करें जिनमें कमजोर और अपंग गायोंको भी प्रश्रय दिया जाये। उन्होंने अन्य कार्यकर्त्ता- ओंके साथ मिलकर अखिल भारतीय गोरक्षा मंडल स्थापित किया और उसका संविधान तैयार किया। उन्होंने जवाहरलाल नेहरूको एक पत्र लिखकर गायके प्रति अपने प्रेमको युक्तियुक्त ढँगसे स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया। "गाय तो प्राणि-मात्रका सिर्फ प्रतीक है। गोरक्षाका अर्थ है दुर्बलों, असहायों, गूगों और बहरोंकी