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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तो भी मैं यही कहूँगा कि जबतक उनमें और मुसलमानोंमें पूरी तरह सुलह नहीं हो जाती और वे यह महसूस नहीं करते कि वे ब्रिटिश संगीनोंकी मददके बिना उनके साथ चैनसे रह सकेंगे तबतक, उन्हें कोहाट वापस लौटनेका विचार भी न करना चाहिए। लेकिन मैं यह जानता हूँ कि यह तो आदर्शकी बात है और यह सम्भव नहीं कि हिन्दू उसके अनुसार चल सकें। फिर भी मैं कोई दूसरी सलाह नहीं दे सकता। मैं तो सिर्फ यही एक व्यावहारिक सलाह दे सकता हूँ। यदि वे इसकी कद्र नहीं कर सकते तो उन्हें अपने ही मनके अनुसार काम करना चाहिए। वे ही अपनी शक्तिको अच्छी तरह जानते हैं। वे देशभक्त या देशसेवककी हैसियतसे तो कोहाट नहीं गये थे और न ही वे अब देशसेवककी हैसियतसे वहाँ वापस लौटना चाहते हैं। वे तो अपने मालपर फिर कब्जा पानेके लिए ही वहाँ जाना चाहते हैं। इसलिए वे वही काम करेंगे जो उन्हें लाभदायी और सम्भव मालूम होगा। उन्हें सिर्फ दो बातें एक साथ नहीं करनी चाहिए, अर्थात् एक ओर मेरी सलाहपर अमल करनेकी कोशिश करना और साथ-ही-साथ सरकारसे सुलहकी शर्तोंके लिए लिखा-पढ़ी करना। मैं जानता हूँ कि वे असह्योगी नहीं हैं। उन्होंने अंग्रेजोंकी मददपर हमेशा भरोसा रखा है। मैं तो उन्हें परिणाम-भर बता सकता हूँ। आगे अपना रास्ता वे खुद पसन्द करें।

मुसलमानोंके लिए भी मेरी सलाह वैसी ही सीधी-सादी है।

जबरदस्ती किये गये या ऐसे ही नाम-मात्रके धर्म परिवर्तनसे हिन्दुओंको उद्वेग हो या कुछ हिन्दू अपनी खोई हुई पत्नियोंको वापस लानेका प्रयत्न करें तो इसमें मुसलमानोंके नाराज होनेकी कोई बात नहीं है।

मैं यह जानता हूँ कि सरदार माखनसिंहका पुत्र अदालतसे अपहरणके दोषसे बरी होकर छूट गया तो भी बहुतसे मुसलमान उसे दोषी ही मानते हैं। लेकिन यदि यह मान भी लें कि उसने यह कसूर किया था तो भी उस एकके दोषके कारण सारी जातिसे ऐसा भयंकर बदला लेना उचित नहीं है।

उस पत्रिकाको, जिसमें वह अपमान करनेवाली कविता छपी थी, मँगाना, खासकर कोहाट जैसी जगहमें बेशक बुरा था। परन्तु सनातन धर्म सभाने लिखित माफी माँगकर उसका काफी प्रायश्चित्त कर लिया था। मुसलमानोंको उससे सन्तोष न हुआ और उन्होंने उस पत्रिकाको श्रीकृष्णकी तस्वीरके साथ ही जला देनेपर सभाको मजबूर किया। उसके बाद उन्होंने जो कुछ भी हिन्दुओंके साथ किया वह जरूरतसे कहीं ज्यादा था। जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ, मैं यह निश्चित रूपसे नहीं कह सकता कि पहले गोली किसने चलाई थी। लेकिन यदि यह मान भी लें कि हिन्दुओंने ही पहले गोली चलाई थी तो उन्होंने डरकर, घबराकर आत्मरक्षाके लिए ही गोली चलाई थी। इसलिए यद्यपि इसे उचित नहीं कह सकते तो भी वह क्षम्य तो अवश्य था। उसके बाद जो ज्यादतियाँ की गईं, सब अनुचित और अनावश्यक थीं। मुसलमानोंका स्पष्ट कर्त्तव्य है कि इस स्थितिमें वे जितना बन पड़े हिन्दुओंके नुकसानकी भरपाई करें। मुसलमानोंको हिन्दुओंसे अपनी हिफाजतके लिए सरकारी मददकी कोई जरूरत नहीं है। यदि हिन्दू चाहें तो भी उन्हें कुछ नुकसान नहीं पहुँचा सकते। लेकिन यहाँ भी मेरी