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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अनिवार्य शब्दका यहाँ अनर्थ हुआ है। अगर राष्ट्रीय स्कूलमें आना अनिवार्य हो और उसके लिए खादी पहननेका नियम भी अनिवार्य हो, तो खादीका इस्तेमाल शायद बेजा तौरपर 'अनिवार्य' बनाया हुआ माना जा सकता है। मैं यहाँ 'शायद' शब्दका उपयोग इसलिए करता हूँ कि अनिवार्य शिक्षा होनेपर भी स्कूलमें भरती होनेकी कुछ शर्तें तो होंगी। उन शोंको बेजा कहना मुश्किल है। वहाँ बच्चोंको कुछ खास विषय पढ़ने होंगे। साथ ही उनका साफ होकर आना, मैले कपड़े न पहनना, नंगे न आना, रंग-बिरंगे हास्यजनक कपड़े पहनकर न आना भी अनिवार्य होगा। ये सभी नियम होंगे, अतः उन्हें कोई अनुचित कहनेकी हिम्मत नहीं कर सकता।

मुझे ऐसा जान पड़ता है कि खादीकी आवश्यकताके बारेमें जिन्हें पूरा यकीन नहीं हुआ है, उन्हीं के सामने मर्जी-बेमर्जीका सवाल खड़ा होता है। माँ-बापको अच्छा लगे या न लगे, पड़ोसियोंका बर्ताव अनुकूल हो या प्रतिकूल, कुछ बातें ऐसी हैं जिनके बारेमें बच्चोंपर पाबन्दी लगाये बिना काम नहीं चलेगा। जैसे, जंगलसे आया हुआ बच्चा बिलकुल नंगा होगा तो हमें उसे कपड़े पहनाने पड़ेंगे, भले ही वह अपने घर जाकर फिर कपड़े उतार दे। बच्चा गन्दी भाषाका उपयोग करेगा तो हमें उसे रोकना ही होगा। हरएक शिक्षक ऐसे कई अनिवार्य प्रतिबन्ध ठीक समझकर लगा सकता है और उनके विरुद्ध ऊपरके शिक्षककी एक भी दलील काम नहीं आयेगी। यानी जो नियम समाजमें घर कर चुके हैं, वे अनिवार्य होनेपर भी अनिवार्य नहीं माने जाते।

बात यह नहीं है कि लोगोंको स्वेच्छासे खादी पहनानेका हमारा प्रयत्न विफल हो गया है इसलिए खादीको अनिवार्य बनाया जा रहा है। बल्कि मुझे और अन्य कुछ लोगोंको लगता है कि अब खादीको अनिवार्य बनाने लायक वातावरण तैयार हो गया है, इसलिए राष्ट्रीय पाठशालाओंमें खादी और कताईको अनिवार्य बनाया जा रहा है। अकसर समाजका मन तैयार हो जाता है, पर शरीर तैयार नहीं होता, इसलिए समाज अनिवार्य बन्धनोंको स्वीकार कर लेता है। इस तरह हम अनिवार्य शब्दका अर्थ समझ लें तो बहुत-सी परेशानियाँ हल हो जायें। 'अनिवार्य' प्रतिबन्ध तो वे हैं जो सत्ता या हुकूमत बलपूर्वक प्रजापर लगाती है और अगर प्रजा उन्हें नहीं मानती तो उसे सजा दी जाती है। अगर यह व्याख्या मान ली जाये तो अनिवार्य प्रतिबन्धों के बारेमें उपरोक्त शिक्षकने जो चर्चा की है उसका कोई आधार नहीं रह जाता।

२. समझानेसे, प्रेमसे और होड़से पहनी हुई खादी ज्यादा दिन पहनी जायेगी . . .। क्या पहले ही दिनसे खादी अनिवार्य करनेके बजाय थोड़े दिन धीरज रखना मूल उद्देश्यके लिए कम सहायक है?

खादी अनिवार्य बना देने में समझाना, प्रेम और होड़ वगैरा तो हैं ही। खादीको अनिवार्य बनानेका भार शिक्षकोंपर है, बच्चोंपर नहीं। शिक्षकको सिपाहीकी तरह हुक्म नहीं देना है, बल्कि जिस प्रकार भी हो उसे बच्चोंका मन जीतनेका प्रयत्न करना चाहिए। यहाँ प्रश्न 'पहले ही दिन' खादी पहनानेका नहीं है पर चार बरस