पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 27.pdf/१५

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नौ

एक राजनीतिक दल बना देनेपर उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी। सच तो यह है कि वे कांग्रेसको पूर्ण रूपसे पं० मोतीलाल नेहरूके हाथों सौंप देने के लिए तत्पर थे। किन्तु इस प्रकार प्रसंग आनेपर संघर्ष छेड़ देनेकी तैयारी करते हुए भी वे अंग्रेजोंके प्रति मैत्री-भाव रखनेकी नीतिपर दृढ़ बने हुए थे। इसके प्रमाण-रूपमें २८ जुलाईको फ्रेड ई० कैम्बेलको लिखे गये उनके पत्र और उससे कुछ ही दिन पूर्व एक यूरोपीय मित्रसे कही गई उनकी इस बातका उल्लेख किया जा सकता है कि “मैं अंग्रेजोंके साथ सहयोग करनेके लिए व्यग्र हूँ।" राजनीतिमें उन्होंने अपने आचरणका सार एक वाक्यमें रखते हुए कहा : "असहयोग किसी व्यक्तिके कृत्योंसे किया जाता है; खुद व्यक्तिसे नहीं" (पृष्ठ ८६)।

भारतीय राष्ट्रवादको सर्वथा सही परिप्रेक्ष्यमें प्रस्तुत करते हुए उन्होंने कहा : "किसी व्यक्तिके लिए राष्ट्रवादी बने बिना अन्तर्राष्ट्रवादी बनना असम्भव है। अन्त- राष्ट्रवाद' उसी अवस्थामें सफल होगा जब राष्ट्रवाद मजबूत होगा, अर्थात् जब भिन्न- भिन्न देशोंके लोग सुसंगठित होकर एक आदमीकी तरह मिलजुलकर सारे काम कर सकेंगे। ...भारतका राष्ट्रधर्म...सारी मनुष्य-जातिकी हित-साधना और सेवाके लिए अपनेको सुसंगठित या पूर्ण रूपसे विकसित करना चाहता है। मुझे अपनी देशभक्ति या अपने राष्ट्रवादके विषयमें कोई सन्देह नहीं है। ईश्वरने मुझे भारतवर्षके लोगोंके बीच जन्म दिया है, इसलिए मैं उनकी सेवामें गफलत करूँ तो मैं अपने सिरजनहार- का अपराधी बनूंगा। यदि मैं उनकी सेवा करना नहीं जानता तो मुझे मानव-जातिकी सेवा करना कभी नहीं आयेगा। और जबतक मैं अपने देशकी सेवा करता हुआ किसी दूसरे राष्ट्रको नुकसान नहीं पहुँचाता तबतक मैं पथभ्रष्ट नहीं हो सकता" (पृष्ठ २५७)। इस प्रकार, कहा जा सकता है कि भारतका स्वतन्त्रता संग्राम एक ऐसे बृहत्तर विश्वव्यापी आन्दोलनका ही अंग था जो समस्त मानव-जातिके कल्याण और हित-साधनसे जुड़ा हुआ था।