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आठ

वे अथवा देश द्वैतभावसे ऊपर नहीं उठ पाया था। इसलिए उन्होंने सार्वजनिक अहिंसाका प्रचार तो नहीं किया, किन्तु क्रान्तिकारियोंको समझाते हुए उन्होंने कहा : "अपने पैर धरतीपर ही जमाये रखें और हिमालयके शिखरोंपर उड़ानें न भरें, जहाँ कि 'महाभारत'के कवि अर्जुन तथा दूसरे वीरोंको ले गये थे। . . . मेरे लिए भारतवर्षका मैदान ही काफी है" (पृष्ठ १४०)।

ईसाई धर्म प्रचारकोंकी एक सभामें उन्होंने कहा : “मुझे आपसे पूरी नम्रताके साथ कहना होगा कि मैंने हिन्दू-धर्मको जिस रूपमें जाना है, उस रूपमें वह मेरी आत्माको पूरी शान्ति देता है; उससे मेरा समस्त अस्तित्व आप्लावित है और जो शान्ति मुझे 'भगवद्गीता' और उपनिषदोंको पढ़कर मिलती है, वह 'गिरि-प्रवचन'को पढ़कर भी नहीं मिलती। यह बात नहीं है कि मैं उसमें बताये गये आदर्शका मूल्य नहीं समझता,... किन्तु मुझे आपके सामने स्वीकार करना चाहिए कि जब मेरा मन शंकाओं और निराशाओंसे घिर जाता है और जहाँतक दृष्टि जाती है, मुझे प्रकाशकी एक किरण भी नहीं दिखाई देती, तब मैं 'भगवद्गीता'की शरण लेता हूँ, और उसमें मुझे कोई-न-कोई शान्तिदायी श्लोक मिल ही जाता है और तब मैं दारुण दुःखके बीच भी तत्काल मुस्करा उठता हूँ। मेरे जीवन में सांसारिक दुःख और शोकके न जाने कितने प्रसंग आये हैं, और अगर वे मुझपर कोई खरोंच नहीं छोड़ पाये तो इसका कारण 'भगवद्गीता'की शिक्षा ही है" (पृष्ठ ४५१)। एक सत्यान्वेषीके नाते वे मौनकी अद्भुत क्षमताओंसे परिचित थे। दक्षिण आफ्रिकामें ट्रैपिस्ट मठमें जाकर उन्होंने जो-कुछ देखा और अनुभव किया, उसे वे यावज्जीवन नहीं भूल पाये। वे कहते हैं : “यदि हम उस मूक और क्षीण स्वरको सुनना चाहते हैं जो हमारे भीतर सदा उठता रहता है, तो स्वयं लगातार बोलते रहकर उसे नहीं सुना जा सकता" (पृष्ठ ४५३)।

इस प्रकार राजनीतिक धूल-धक्कड़के बीच गांधीजीका मन निरन्तर अध्यात्मके धरातलपर विचरण करता रहता था। किन्तु, इसका मतलब यह नहीं है कि वे यथार्थके प्रति सजग नहीं थे या राजनीतिक प्रवृत्तियों और विचारोंके सही मूल्यांकन और दिशा-निर्देशनमें उन्होंने कुछ कम रुचि ली। स्वराज्यवादी दलके नेता चित्तरंजन दास और मोतीलाल नेहरूके प्रति उन्होंने पुन: अपना विश्वास व्यक्त किया, और जब चित्तरंजन दासके निधनसे देश शोक-संतप्त हो उठा तो उन्होंने उनकी स्मृतिको उन उपायोंसे सम्मानित करनेका प्रयत्न किया जिनसे देशबन्धुकी परम आकांक्षा — अर्थात् सर्वसाधारणका कल्याण — सिद्ध हो सकती थी। स्वराज्यवादी दलके नेताओंमें उनको इतना अधिक विश्वास था कि उनकी स्वीकृतिके बिना वे कांग्रेसमें कुछ भी करनेको तैयार नहीं थे। भारत मन्त्री लॉर्ड बर्कनहेडके भ्रामक वक्तव्यके विषयमें १८ जुलाईको लिखते हुए उन्होंने घोषणा की कि एक ओर पण्डित मोतीलालजी विधानसभामें लड़ते हुए देशबन्धुकी जगह स्वराज्य दलका नेतृत्व करेंगे और दूसरी ओर मैं सत्याग्रहके लिए वातावरण तैयार करने में जुटा रहूँगा (पृष्ठ ४०६–७)। व्यक्तिश: रचनात्मक कार्य- क्रमको सर्वाधिक महत्त्व देते हुए भी स्वराज्यवादी दलकी खातिर कांग्रेसको प्रमुख रूपसे