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१६१. तार : के॰ केलप्पन नायरको[१]

[रसा रोड
कलकत्ता
१८ जून, १९२५ या उसके पश्चात्]

हम किसी आधे समझौतेके लिए तैयार न हों; पर सत्याग्रहियोंको ऐसे स्थानोंपर तैनात किया जाना चाहिए जिनपर कमिश्नरको आपत्ति न हो। आपके तारका आशय स्पष्ट नहीं। जो भी हो, सड़कें बिलकुल खुली रहनी चाहिए।

गांधी

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १०६९१) की फोटो नकलसे।

 

१६२. देशबन्धु जिन्दाबाद![२]

[१९ जून, १९२५]

कलकत्ताने कल दिखला दिया है कि देशबन्धु दासका बंगाल ही नहीं, सारे भारतवर्षके हृदयपर कितना अधिकार था। बम्बईकी तरह कलकत्ता भी सार्वभौमिक नगर है। इसमें हर प्रान्तके लोग बसते हैं और इन तमाम प्रान्तोंके लोग, बंगालियोंकी तरह ही, उस जुलूसमें हार्दिक योग दे रहे थे। देशके कोने-कोनेसे तारोंकी जो झड़ी लग रही है उससे भी यही बात और जोरके साथ प्रकट होती है कि सारे, देश-भरमें वे कितने लोकप्रिय थे।

अपनी कृतज्ञताके लिए प्रसिद्ध इस जन-समाजसे इससे भिन्न व्यवहारकी अपेक्षा भी नहीं की जा सकती थी। फिर देशबन्धु इसके पात्र भी थे। उनका त्याग महान् था। उनकी उदारताकी सीमा न थी। उनकी मुट्ठी सदा और सबके लिए खुली रहती थी। दान देनेमें वे कभी आगा-पीछा न करते थे। उस दिन जब मैंने बड़े मीठे भावसे कहा कि अच्छा होता आप दान देनेमें अधिक विचारसे काम लेते तो उन्होंने

  1. गांधीजीके १७ जूनके तारके बाद उन्हें श्री केलप्पनका इस प्रकारका तार मिला था : "आधी सड़कोंके इस्तेमालकी इजाजतके लिए सरकार एक तरहसे राजी। कोई ऐलान नहीं। बाकी सड़कोंको बन्द करनेका मतलब है सदाके लिए अनुपगम्यताको बरकरार रखना। हल स्वीकार्य नहीं। सत्याग्रह त्यागनेका अर्थ है अनुपगम्यताको प्रथाके सामने घुटने टेकना; उत्तर तार द्वारा दें।" केलप्पन नाथरने इसी दिन ब्यौरेवार पत्र भी लिखा था; देखिए "पत्र : के॰ केलप्पन नाथरको", २८-७-१९२५ ।
  2. यह लेख २० जून, १९२५ के अमृतबाजार पत्रिकामें भी प्रकाशित हुआ था।