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देशबन्धु जिन्दाबाद!

तुरन्त उत्तर दिया, "पर मैं नहीं समझता कि अपने अविचारके कारण मेरी कुछ हानि हुई है।" उनका रसोईघर अमीर और गरीब सबके लिए खुला रहता था। उनका हृदय हरएककी मुसीबतके समय सहानुभूतिसे भर जाता था। बंगाल-भरमें ऐसा कौन नवयुवक है जो किसी-न-किसी रूपमें देशबन्धुके उपकारसे बँधा नहीं है? उनकी बेजोड़ कानूनी प्रतिभाका लाभ भी गरीबोंको सदा सुलभ रहता था। मुझे मालूम हुआ है कि उन्होंने यदि सबकी नहीं तो बहुतेरे राजनीतिक कैदियोंकी पैरवी बिना एक पैसा लिए की है। पंजाब-काण्डकी[१] जाँचके समय जब वे पंजाब गये थे तो अपना सारा खर्च अपनी जेबसे ही किया था। उन दिनों अपने साथ वे एक राजाकी तरह लवाजिमा ले गये थे। उन्होंने मुझसे कहा था कि पंजाबकी उस यात्रामें उनके ५०,०००) खर्च हुए थे। जो उनके दरवाजे आता उसीके लिए उनका उदार हाथ आगे बढ़ जाता था। उनके इसी गुणने उन्हें हजारों नवयुवकोंका हृदय-सम्राट् बना दिया था।

वे जैसे उदार थे वैसे ही निर्भीक भी थे। अमृतसरमें उनके धुआँधार भाषणोंने मुझे चकित कर दिया था। वे अपने देशकी मुक्ति तुरन्त चाहते थे। वे एक भी विशेषणको हटाने या बदलनेके लिए तैयार न थे, इसलिए नहीं कि वे जिद्दी थे, बल्कि इसीलिए कि उन्हें अपना देश बहुत प्यारा था। उन्होंने विशाल शक्तियोंको अपने नियन्त्रणमें रखा। अपने अदम्य उत्साह और अव्यवसायके द्वारा उन्होंने अपने दलको शक्ति-सम्पन्न बनाया। परन्तु यह भीषण शक्तिप्रवाह उनकी जान ले बठा। उनका यह बलिदान स्वैच्छिक था। वह उच्च था——उदात्त था।

उनकी सबसे बड़ी जीत फरीदपुरके कांग्रेस अधिवेशनके अवसरपर हुई। उनके वहाँके उद्गार उनकी अनुपम विवेकशक्ति और राजनीतिज्ञताके नमूने थे। उनका वह भाषण विचारपूर्ण और स्पष्ट था और (जैसा कि मुझसे उन्होंने कहा) उसमें उन्होंने अपने लिए अहिंसाको एकमात्र नीति और इसलिए भारतवर्षके राजनीतिक धर्मके रूपमें स्वीकार किया था।

पण्डित मोतीलाल नेहरू तथा महाराष्ट्रके अनुशासनबद्ध, दिग्गज नेताओंके साथ मिलकर उन्होंने शून्यवत् स्वराज्यदलको एक महान् और वर्धमान दल बना लिया और ऐसा करके उन्होंने अपनी संकल्पशक्ति, मौलिकता, साधनबाहुल्य और किसी वस्तुको अच्छा मान लेनेके बाद फिर परिणामकी चिन्ता न करने आदि गुणोंका परिचय दिया। फलस्वरूप आज हम स्वराज्यदलको एक ठोस और सुचारु रूपसे अनुशासनबद्ध संगठनके रूपमें देखते हैं। कौंसिल-प्रवेशके सम्बन्धमें मेरा उनसे मतभेद था और है। पर मैंने सरकारका काम कठिन बनाने और पग-पगपर उसके कामका अनौचित्य दिखानेके एक साधनके रूपमें कौंसिल-प्रवेशकी उपयोगितासे कभी इनकार नहीं किया। कौंसिलोंमें इस दलने जो काम किया उसके महत्त्वसे कोई इनकार नहीं कर सकता और उसका श्रेय मुख्यतः देशबन्धुको ही है। मैंने हर चीजपर खूब सोच-विचार करके ही उनके साथ समझौता किया था। तबसे मैंने उस दलकी यथाशक्ति सहायता की है। अब

  1. १९१९ में।