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चित्तरंजन दास

मान्य अपनी गरुड़के सदृश तेज नजरसे वहाँ जो कुछ हो रहा था, सब देख रहे थे। व्याख्यान-मंचसे पण्डित मालवीयजीकी गंगाके सदृश वाग्वारा वह रही थी——उनकी एक आँख सभामंचपर लगी थी, जहाँ हम साधारण लोग बैठे हुए राष्ट्रके भाग्यका निर्णय कर रहे थे। लोकमान्यने कहा——"मेरे देखनेकी जरूरत नहीं। यदि दासने उसे पसन्द कर लिया है तो मेरे लिए वह काफी होगा।" मालवीयजीने उसे वहाँसे सुना, कागज मेरे हाथसे छीन लिया और तीव्र करतलध्वनिके बीच घोषित कर दिया कि समझौता हो गया है। मैंने इस घटनाका सविस्तार वर्णन इसलिए किया है कि इसमें देशबन्धुकी महत्ता, उनके निर्विवाद नेतृत्व, उनकी कार्यविषयक दृढ़ता, निर्णय सम्बन्धी समझदारी, दलके प्रति वफादारी इत्यादिके कारणोंका निचोड़ आ जाता है।

अब और आगे बढ़िए। अब हम जुहू, अहमदाबाद, दिल्ली और दार्जिलिंगकी बात उठाते हैं। जुहूमें वे और पण्डित मोतीलालजी मुझे अपने पक्षमें मिलानेके लिए आये। वे दोनों जुड़वाँ भाई-जैसे हो गये थे। हमारे दृष्टिकोण जुदा-जुदा तो थे ही। पर उन्हें यह गवारा न था कि मेरे साथ मतभेद रहे। यदि उनके बसकी बात होती तो जहाँ मैं २५ मील चाहता वे ५० मील चले जाते। परन्तु जहाँ देशहितका प्रश्न था, वे एक अत्यन्त प्रिय मित्रके सामने भी एक इंचतक झुकना नहीं चाहते थे, हमने एक किस्मका समझौता कर लिया। हमारा मन तो न भरा; पर हम निराश भी न हुए। बात यह थी कि हम एक-दूसरेपर विजय प्राप्त करनेपर तुले हुए थे। बादको हम अहमदाबादमें मिले। देशबन्धु अपने पूरे रंगमें थे और परिस्थितियोंका अवलोकन एक चतुर खिलाड़ीकी तरह कर रहे थे। उन्होंने मुझे शानदार शिकस्त दी।[१] उनके जैसे मित्रके हाथों ऐसी कितनी शिकस्तें मैं न खाऊँगा?——पर अफसोस! वह शरीर अब दुनियामें नहीं है। कोई यह खयाल न करे कि साहावाले प्रस्तावके[२] कारण हम एक-दूसरेके शत्रु बन गये थे। हम एक-दूसरेको गलतीपर जरूर समझते थे, पर वह मतभेद स्नेहियोंके बीचका मतभेद था। वफादार पति और पत्नी अपने पवित्र मतभेदोंके दृश्योंकी याद करें——किस तरह वे अपने मतभेदोंके कारण कष्ट सहते हैं, ताकि उनके पुनर्मिलनका सुख द्विगुणित हो जाये। हमारी हालत यही थी। सोचता था, हमें फिर दिल्लीमें उस शिष्ट किन्तु दुर्दान्त पण्डितसे और विनम्र स्वभाववाले दाससे, जिसका बाहरी रूप सरसरी तौरपर देखनेवालेको रूक्ष मालूम हो सकता है, मिलना होगा। समझौतेका खाका वहाँ तैयार हुआ और पसन्द भी किया गया। वह एक अटूट प्रेमबन्धन था, जिसपर कि अब एक पक्षने अपनी मृत्युके रूपमें अन्तिम मुहर लगा दी है।

अब मैं फिलहाल दार्जिलिंगका जिक्र छोड़ता हूँ। वे आध्यात्मिक होनेका दावा भी करते थे और कहते थे कि धर्मके विषयमें मुझसे उनका कोई मतभेद नहीं है। पर यद्यपि उन्होंने कहा नहीं, तथापि उनका भाव यह रहा होगा कि मैं इतना रसहीन हूँ कि मुझे हमारे विश्वासोंकी एकरूपता नहीं दिखाई देती। मैं मानता हूँ कि उनका

  1. देखिए खण्ड २४, पृष्ठ ३४२-४९ ।
  2. देखिए खण्ड २४, पृष्ठ २७२-७६ ।