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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इस स्वयंस्फूर्त आश्वासनके पहले ही हममें इतनी घनिष्ठता स्थापित हो गई थी कि मुझे अपने मनका संशय उनपर प्रकट कर देनेका साहस हो गया। उनकी ओरसे उपर्युक्त आश्वासन मिल जानेके पश्चात् मुझे इस वफादार सहयोगीपर अभिमान तो हुआ, किन्तु साथ ही मुझे कुछ शर्म-सी आई, क्योंकि मैं जानता था कि मैं तो भारतकी राजनीतिमें एक नौसिखिया हूँ और कदाचित् ही ऐसे पूर्ण विश्वासका अधिकारी हूँ। परन्तु अनुशासन छोटे-बड़ेका भेद नहीं जानता। वह राजा जो अनुशासनके मूल्यको जानता है, अपने खिदमतगारकी भी बात, उस मामलेमें जिसका पूरा भार वह उसीपर छोड़ देता है, मान लेता है। इस जगह मेरा स्थान एक खिदमतगार-जैसा था। और मैं इस बातका उल्लेख कृतज्ञता और अभिमानके साथ करता हूँ कि मुझे जितने वफादार सहयोगी वहाँ मिले थे, उनमें कोई इतना वफादार न था जितने चित्तरंजन दास थे।

अमृतसरमें कांग्रेस अधिवेशनके अवसरपर अनुशासन चलानेका अधिकार मुझे नहीं मिल सकता था। वहाँ हम सभी योद्धा थे; हममें से हरएकको अपनी-अपनी योग्यताके अनुसार राष्ट्रहित-रूपी अपनी थातीकी रक्षा करनी थी। वहाँ शुद्ध तर्क अथवा पक्षके हितके अलावा अन्य किसीके सुझावके सामने सिर झुकातेका सवाल ही न था। कांग्रेसके मंचपर पहली लड़ाई लड़ना मेरे लिए बहुत आनन्दका विषय था। परम विनयी, परन्तु वैसे ही दृढ़, महान् मालवीयजी दोनों पक्षोंमें सन्तुलन रखनेकी कोशिश कर रहे थे। राजी करनेके खयालसे वे कभी एकके पास जाते थे, कभी दूसरेके पास। कांग्रेसके अध्यक्ष पण्डित मोतीलालजीने सोचा कि खेल खत्म हो चुका है। लोकमान्य और देशबन्धुके साथ इस बार मेरा समय जैसा बीता, वह मेरी स्मृतिमें एक विरल अनुभवके रूपमें कायम रहने वाला है। उन दोनोंने सुधार सम्बन्धी प्रस्तावका एक ही सूत्र बना रखा था। हम एक दूसरेके गले अपनी-अपनी बात उतार देना चाहते थे। पर कोई किसीका कायल न होता था। बहुतोंने तो सोचा था कि अब कोई चारा नहीं है और बात बिगड़ हो चुकी है। अलीभाई, जिन्हें मैं जानता जरूर था, और जिनके प्रति मेरा प्रेमभाव था, परन्तु जिनके साथ आजकी तरह घनिष्ठ परिचय नहीं था, मुझे देशबन्धुके प्रस्तावके पक्षमें लानेकी कोशिश करने लगे। मुहम्मद अलीने अपनी आग्रहपूर्ण विनम्रताके साथ कहा, 'जाँच समितिमें आपने जो महान् कार्य किया है, कृपया उसे नष्ट न कीजिए।' पर उनकी बात मुझे न जँची। तब जयरामदास, उस ठंडे दिमागवाले सिन्धीने, पतवार थामी; उन्होंने समझौतेसे सम्बन्धित अपने सुझाव, मय अपने तर्कके, एक कागजपर लिखकर मेरे पास भेजे। मैं उन्हें बहुत कम जानता था। पर उनके नेत्रों और चेहरेमें कोई ऐसी बात थी, जिसने मुझे लुभा लिया। मैंने उस पुर्जीको पढ़ा; सुझाव अच्छा था। मैंने उसे देशबन्धुको दिया। उन्होंने जवाब दिया——"ठीक है, बशर्ते हमारे पक्षके लोग इसे मान लें।" यहाँ अपने दलके प्रति उनकी निष्ठापर गौर कीजिए। अपने पक्षके लोगोंका समाधान किये बिना वे रह नहीं सकते थे। यही एक रहस्य है, लोगोंके हृदयोंपर उनके आश्चर्यजनक अधिकारका। वह योजना सब लोगोंको पसन्द आई। लोक-