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संरक्षणकी आवश्यकता

तीनों प्रकारकी सहायताको प्राप्त करनेका काम साथ-साथ चलता है। मैंने अपनी यात्रामें यह देखा है कि लोगोंमें खादीप्रेम तो बहुत है अथवा यह कहना चाहिए कि लोग खादी पहननेके लिए तो तैयार हैं; किन्तु वे खादी तलाश करनेका कष्ट उठानेके लिए अथवा विदेशी कपड़ेसे खादीका ज्यादा दाम देनेके लिए तैयार नहीं हैं। इस प्रकार अब हम इस स्थितितक पहुँच चुके हैं कि यदि हम सस्ती खादी तैयार कर सकें अथवा उसे सस्ती बेच सकें तो लोग उसका उपयोग करेंगे।

हमें धनी लोगोंकी सहायता पर्याप्त नहीं मिली है। मताधिकारमें सूत कातना शामिल तो कर लिया गया है; किन्तु अभी लोगोंने उसे इतना नहीं अपनाया है कि उस मताधिकारके अनुसार तैयार सूतका असर खादीके भावपर पड़ सके। इस प्रकार यदि समाज भारत-माताके लिए इतना भी करनेके लिए तैयार नहीं होता तो हम खादीका प्रचार जितना करना चाहते हैं उतना कैसे कर सकते हैं? इसके अतिरिक्त जबतक चरखा-शास्त्रमें प्रवीण कार्यकर्त्ता बहुत बड़ी संख्यामें नहीं मिलते तबतक सूत और खादीकी किस्म नहीं सुधारी जा सकती। ऊपर जो तीन काम बताए गए हैं वे ऐसे हैं कि उनको मध्यमवर्गके लोग अर्थात् थोड़ेसे लोग ही पूरा कर डाल सकते हैं। यदि ये काम हो जाएँ तो लोग तुरन्त खादी पहनने लग जाएँ। इसलिए इस दोष या त्रुटिके लिए मध्यमवर्ग जिम्मेदार है। यदि मध्यमवर्ग——शिक्षितवर्ग——खादीकी उपयोगिता समझ ले तो फिर खादीको व्यापक बनानेमें कोई अड़चन नहीं आ सकती; तब हम खादीके दाम जितने चाहें उतने कम कर सकेंगे।

यदि हमारे पास पर्याप्त संख्यामें चरखाशास्त्रके जानकार हों तो हम जितना और जैसा सूत अब प्राप्त कर पाते हैं उतने ही समयमें उसकी अपेक्षा परिमाणमें कमसे-कम दुगुना या ड्योढ़ा और अधिक अच्छे किस्मका सुत प्राप्त कर लेंगे। हम चरखा-शास्त्रियोंके अभावमें जैसे-तैसे चरखे चलाते रहते हैं और चाहे जैसा सूत स्वीकार कर लेते हैं। चरखा-शास्त्री चरखोंके दोष दूर कर सकेंगे और फलस्वरूप अधिक सूत काता जा सकेगा तथा सूतके दोष भी दूर होंगे। ऐसा करनेपर खादीकी बुनाई भी अपेक्षाकृत सस्ती पड़ेगी। हाथ-कता सूत कच्चा-पक्का हो तो उसे बुननेमें देर लगती है; इसलिए मिलके सूतकी अपेक्षा उसकी बुनाई महँगी पड़ती है। दुर्भाग्यसे हमारे पास देश-भरमें गिने-चुने चरखा शास्त्री हैं। हमने जितनी कम तैयारीसे चरखेके प्रचारका काम शुरू किया है उतनी कम तैयारीसे किसी दूसरी प्रवृत्तिमें काम चल ही नहीं सकता था। कम तैयारी होनेपर भी हमने चरखा प्रचारमें जो प्रगति की है उससे यह मालूम पड़ता है कि चरखा और खद्दरकी महिमा कितनी है और वे देशके लिए कितने आवश्यक हैं। मेरा दृढ़ मत है कि भारतमें जो अनेक प्रवृत्तियाँ चल रही हैं, उनमें खादीकी प्रवृत्ति सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। देशमें खादीके सिवा कोई दूसरी ऐसी व्यापक लोकोपकारी प्रवृत्ति नहीं है, जिसमें पिछले चार वर्षोंमें लोगोंके हाथोंमें इतना पैसा गया हो अथवा जिसमें इतने लोग दिन-रात व्यस्त रहे हों अथवा जिसमें आज इतने लोग ईमानदारीसे अपनी आजीविका कमा रहे हों या बिना कुछ लिए काम कर रहे हों। इस सबमें दिन-प्रतिदिन वृद्धि होती जाती है। इस प्रकारकी