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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

शुभ और अल्प प्रयाससे फल देनेवाली प्रवृत्तिको यदि समुचित रूपसे उक्त तीनों प्रकारका संरक्षण मिले तो मेरा निश्चित मत है कि भारत कुछ समयमें ही खादीमय हो जाएगा। मेरी प्रार्थना है कि धनी इसमें धन दें, हिन्दू, मुसलमान, पारसी और ईसाई, स्त्री-पुरुष सब इसमें कमसे-कम आधे घंटेका श्रम दें और खादीप्रेमी इसके विशेषज्ञ बनकर इसे अपने ज्ञानका लाभ दें। इसके फलस्वरूप हिन्दुस्तान खादीमय बनेगा, हिन्दुस्तानका साठ करोड़ रुपया बाहर जानेसे रुकेगा, वह गरीबोंमें बँटेगा और उससे हिन्दुस्तानके लोगोंमें अपनी शक्तिके सम्बन्धमें आत्मविश्वास उत्पन्न होगा।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २१-६-१९२५

१६७. पावककी ज्वाला

प्रीतमके गीतकी पंक्ति है कि "प्रेमपंथ पावककी ज्वाला है, लोग इसे देखकर पीछे भागते हैं"।[१] अस्पृश्यका स्पर्श करना, तिरस्कृतका सत्कार करना प्रेमपंथ है। उसमें बहुतसे संकट आते हैं। बाप त्याग दे, माँ घर निकाल दे, समाज बहिष्कृत कर दे और पुजारी देखते ही मन्दिरके द्वार बन्द कर दे; किन्तु जो प्रेम फिर भी बना रहे वही सच्चा प्रेम है।

काठियावाड़-जैसे छोटेसे प्रदेशमें अस्पृश्यता-निवारण आन्दोलनसे वैष्णव जगतमें खलबली मच गई है। जिन्होंने अस्पृश्यताको भ्रष्ट प्रथा मानकर त्याग दिया है, उनके लिए वैष्णव मन्दिरोंके द्वार बन्द किए जाने लगे हैं। ऐसे लोग मन्दिरोंके बिना कैसे काम चला सकेंगे? उन्हें क्या करना चाहिए? उत्तर एक ही हो सकता है: उन लोगोंको मन्दिरमें जाए बिना ही काम चलाना चाहिए। मूर्तिकी प्रतिष्ठा करनेवाले तो आखिर हम ही हैं। जिस मूर्तिके आसपास अधर्म फैलता है उससे तो हमें लाभके बजाय हानि ही होगी। अन्तिम मन्दिर तो हृदय ही है। मन्दिरकी भित्तियाँ तो लंगड़ेकी लकड़ी-जैसी हैं। वे तो सहारा-मात्र हैं। जब यह लकड़ी सहारा न रहकर बोझ बन जाए तब उसे फेंक देना चाहिए। इस वैष्णव मन्दिरके द्वार बन्द हो सकते हैं; किन्तु हृदयरूपी मन्दिरके द्वार तो चौबीसों घंटे खुले रहते हैं। उसमें बैठा हुआ अन्तर्यामी भगवान हमारी रक्षा निरन्तर करता ही रहता है। जो प्रेमपंथपर चलते हैं उन्हें इस मंदिरमें विराजमान भगवानके दर्शन करके कृतार्थ होना चाहिए।

किन्तु वैष्णव मन्दिर तो सार्वजनिक संस्था है। यदि हम उसमें प्रवेश-निषेधकी आज्ञाको न मानें तो? अनुचित प्रतिबन्धको माननेकी क्या जरूरत है? इस प्रकारके तर्क उठाना कि क्या इस प्रतिबन्धको मानना पाप न होगा, अनुचित है। ऐसे अवसरकी कल्पना की जा सकती है जब किसी प्रतिबन्धको माननमें पाप हो; किन्तु मुझे मन्दिरमें प्रवेश सम्बन्धी प्रतिबन्ध ऐसा नहीं लगता। जिसे यह प्रतिबन्ध ऐसा लगे वह तो चाहे कितना ही कष्ट क्यों न उठाना पड़े, वहाँ प्रवेश करेगा ही। ऐसे मामलोंमें

  1. "प्रेम पन्थ पावकनी ज्वाळा, भाळी पाछा भागे जो ने।"