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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

समझिए। पाँव जरा इधर-उधर हुआ कि वह नीचे आया। वह अपने मनमें भी अपने गुणोंके सराहनासूचक शब्द कहनेका साहस नहीं करता, क्योंकि वह नहीं जानता कि अगले क्षणमें क्या होनेवाला है। उसके मनमें पहले अहंकार उत्पन्न होता है और उसके फलस्वरूप उसका विनाश होता है; उसके हृदयमें दर्प आता है फलतः उसका पतन होता है।

'गीता' में सच कहा है——

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥[१]

अर्थात् जबतक मनुष्यके मनमें अहंभाव मौजूद है तबतक उसे ईश्वरका साक्षात्कार नहीं हो सकता। यदि वह ईश्वरमें मिलना चाहता हो तो उसे शून्यवत् हो जाना चाहिए। इस प्रतिक्षण परिवर्तनशील जगतमें ऐसा कहनेका साहस कौन कर सकता है कि "मैंने विजय प्राप्त की"? हम विजय प्राप्त नहीं करते; ईश्वर प्राप्त कराता है।

हमें इन गुणोंका महत्त्व कम नहीं कर देना चाहिए; नहीं तो हम सब यह कहने लगेंगे कि ये गुण हममें मौजूद हैं। जो बात भौतिक बातोंके बारेमें सच है वही आध्यात्मिक बातोंके बारेमें भी सच है। यदि एक सांसारिक संग्रामस्थलमें विजय पानेके लिए यूरोपने गत महायुद्धमें——जो स्वयं ही नाशवान् है——कितने करोड़ लोगोंका बलिदान कर दिया, तब यदि आध्यात्मिक युद्धमें करोड़ों लोगोंको इसके प्रयत्नमें मिट जाना पड़े, जिससे कि संसारके सामने एक पूर्ण उदाहरण रह जाये, तो यह कौन-सी बड़ी बात है? हमारे हाथमें तो इतना ही है कि हम अत्यधिक नम्रताके साथ उद्योग करते जायें।

इन उच्च गुणोंको अपनेमें विकसित करना ही उनके लिए किये परिश्रमका पुरस्कार है। जो इनमें से किसी एकको प्राप्त कर लेनेपर उसके बदलेमें भौतिक सुख चाहता है वह अपनी आत्माका नाश करता है। सद्गुण कोई व्यापारकी चीज नहीं है। मेरा सत्य, मेरी अहिंसा, मेरा ब्रह्मचर्य ये मेरे और मेरे कर्त्तासे सम्बन्ध रखनेवाले विषय हैं। ये तिजारतकी चीजें नहीं हैं। जो भी युवक उनकी तिजारत करनेकी कोशिश करेगा, वह अपना ही नुकसान करेगा। जगत्के पास कोई ऐसा मापदण्ड नहीं है, कोई ऐसा साधन नहीं है जिससे इन बातोंकी नापतौल की जा सके। वे छानबीन और विश्लेषणसे परे हैं। इसलिए हम कार्यकर्त्ताओंको चाहिए कि हम उन्हें केवल अपने खुदके शुद्धीकरणके लिए प्राप्त करें। हम दुनियासे कह दें कि वह हमारे कार्योंस हमारा मूल्यांकन करे। जो संस्था या आश्रम अपनेको लोगोंसे सहायता पानेका अधिकारी मानता हो उसका लक्ष्य भौतिक——सांसारिक होना चाहिए——जैसे अस्पताल, पाठशाला, कताई और खादीप्रचार। सर्वसाधारणको इन गतिविधियोंकी उपयोगिता-अनुपयोगिता परखनेका अधिकार है और यदि जनता उन्हें पसन्द करती है तो सहायता कर सकती है। शर्तें स्पष्ट हैं। व्यवस्थापकोंमें नेकनीयती और योग्यता होनी चाहिए।

  1. अध्याय २, श्लोक ५९।