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नम्रताकी आवश्यकता

चाहिए। वास्तविक ब्रह्मचर्यका फल अद्भुत होता है और वह पहचाना भी जा सकता है। इस सद्गुणका पालन करना कठिन है। प्रयत्न तो बहुतेरे करते हैं, पर सफल बिरले ही हो पाते हैं। जो लोग देशमें गेरुआ वस्त्र पहनकर संन्यासियोंके वेषमें घूमते-फिरते हैं, वे प्रायः किसी सामान्य व्यक्तिसे अधिक ब्रह्मचारी नहीं होते। अन्तर इतना ही है कि मामूली आदमी उसकी डींग नहीं हाँकता। इसलिए अकसर उस संन्यासीसे बेहतर होता है। वह इसी विचारसे सन्तोष मान बैठता है कि परमात्मा उसके संकटकी घड़ियोंको, उसके मार्गके प्रलोभनोंको जानता है; वह प्रलोभनोंपर उसके विजयके अवसरों तथा उसके भगीरथ प्रयत्नोंके बावजूद उसके कुछ स्खलनोंको जानता है। यदि दुनिया उसके पतनको देखे और उससे उसे तोले तो वह असन्तुष्ट नहीं होता और अपनी सफलताओंको वह कंजूसके धनकी तरह छिपाकर रखता है। वह इतना विनयी होता है कि उन्हें प्रकट नहीं करता। ऐसा मनुष्य उद्धारकी आशा रख सकता है। परन्तु वह कदापि नहीं, जो संयमका ककहरातक नहीं जानता, परन्तु अपनेको संन्यासी माननेका ढोंग रखता है। ऐसे सार्वजनिक कार्यकर्त्ता जो संन्यासीका वेष नहीं बनाते, पर अपने त्याग और ब्रह्मचर्यका ढिंढोरा पीटते फिरते हैं, दोनों गुणोंका मान घटाते हैं और अपनेको तथा अपने सेवाकार्यको बदनाम करते हैं। उनसे सावधान रहना ही उचित है। उनसे समाजको हानि हो सकती है।

जब मैंने अपने साबरमती आश्रमके लिए नियमावली तैयार की, तब वह मित्रोंके पास सलाह और समालोचनाके लिए भेजी। उस नियमावलीकी एक प्रति स्वर्गीय सर गुरुदास बनर्जीको भी भेजी। उस प्रतिकी पहुँचकी सूचनाके साथ उन्होंने सलाह दी कि नियमोंमें उल्लिखित व्रतोंमें नम्रता भी एक होनी चाहिए। उन्होंने अपने पत्रमें लिखा था आजकलके नवयुवकोंमें नम्रताका अभाव पाया जाता है। मैंने उनसे कहा कि मैं आपकी सलाहके मूल्यको तो स्वीकार करता हूँ, नम्रताकी आवश्यकताको भी पूरा-पूरा समझता हूँ, पर एक व्रतके रूपमें उसको स्थान देना उसके गौरवको घटाना है। यह बात तो हमें गृहीत ही करके चलना चाहिए कि जो लोग सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्यका पालन करेंगे, वे नम्र अवश्य रहेंगे। नम्रताविहीन सत्य एक उद्धत व्यंगचित्र होगा। जो व्यक्ति सत्यका पालन करना चाहता है, वह जानता है कि यह कितना कठिन है। दुनिया उसकी कथित सफलताओंपर भले ही हर्ष प्रकट करे, पर उसे उसकी गिरावटका पता बहुत ही कम लग पाता है। सत्यपरायण व्यक्ति बड़ा ही नियन्त्रित व्यक्ति होता है। उसे नम्र बननेकी आवश्यकता है ही। जो शख्स सारे संसारके साथ, यहाँतक कि उसके भी साथ, जो उसे अपना शत्रु कहता हो, प्रेम करना चाहता है, वह जानता है कि केवल अपने बलपर ऐसा कर पाना कितना कठिन है। जबतक वह अपनेको एक रजकणके समान तुच्छ न समझने लगेगा तबतक वह अहिंसा के तत्त्वको ग्रहण नहीं कर सकता। जिस प्रकार उसके प्रेमकी मात्रा बढ़ती जाती है, उसी प्रकार यदि उसकी नम्रताकी मात्रा न बढ़ी तो वह किसी कामका नहीं। जो मनुष्य अपनी आँखों में तेज लाना चाहता है, जो स्त्री मात्रको अपनी सगी माता या बहन मानता है, उसे तो रजकणसे भी तुच्छ बनना पड़ेगा। उसे एक ऊँचे कगारके किनारेपर खड़ा