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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मुताबिक, सरकारी अधिकारीगण बने हुए प्रतीत होते हैं। क्योंकि सत्याग्रहीकी शक्ति आख्यानोंमें वर्णित उस पक्षीकी[१] शक्तिकी तरह है जो कि अपनी राखमें से पुनः उत्पन्न हो जानेकी क्षमता रखता है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २५-६-१९२५
 

१८२. सत्याग्रहियोंका कर्त्तव्य

कलकत्ता
२५ जून, १९२५

हुगलीकी जिला अदालतने हालमें एक फैसला सुनाया है। उसके अनुसार तारकेश्वरके मन्दिर और साथ-साथ महन्तकी मानी जानेवाली सारी सम्पत्तिके लिए एक 'रिसीवर' तैनात किया जानेवाला है। इसे देखते हुए सत्याग्रहियोंका क्या कर्त्तव्य है——यह बात हमसे पूछी गई है।

हमारी राय तो यह है कि जब 'रिसीवर' उस सम्पत्तिको अपने अधिकारमें करने आये तब सत्याग्रही अधिग्रहणका विरोध नहीं कर सकते और न 'रिसीवर ' द्वारा उस जायदादका कब्जा लेनेका विरोध कोई अर्थ ही रखता है। सत्याग्रह तो महन्तके खिलाफ, बल्कि उसके तौर-तरीकोंके खिलाफ, किया गया था। अब वह महन्त काबिज नहीं है और न्यायालयके निर्णयने महन्तको कब्जा नहीं दिया है। इसके विपरीत, उस निर्णयसे यह भी साफ हो जाता है कि यद्यपि महन्तने सारी मिल्कियतका पूरा या आंशिक कब्जा प्राप्त करनेकी कोशिश की थी लेकिन उसे सफलता नहीं मिली।

सत्याग्रहका उद्देश्य था मन्दिरसे सम्बन्धित समस्त अनुचित व्यापारको समाप्त करवाना और लक्ष्मीनारायण मन्दिरको आम जनताके प्रवेशके लिए खुलवाना। अब अदालतके फैसलेके अधीन पहलेके दोषोंका फिरसे प्रारम्भ या मन्दिर-प्रवेश-निषेधका पुनः रूढ़ होना सम्भव नहीं रह गया है। जबतक मन्दिरका प्रबन्ध निर्दोष रहता है और महन्तके हाथमें प्रबन्ध नहीं होता, तबतक सत्याग्रहियोंको इस बातसे कोई प्रयोजन नहीं कि कब्जा किसके पास है।

इसलिए सत्याग्रहियोंका यह कर्त्तव्य होगा कि माँगनेपर 'रिसीवर' को कब्जा दे दिया जाये। यदि फिर कभी प्रबन्धमें बुराइयाँ पैदा होने लगें तो उस समय स्थिति पर फिरसे विचार किया जा सकता है। जबतक न्यासकी व्यवस्था सही ढंगसे चलती रहे तबतक न्यासी कौन-कौन व्यक्ति बनते हैं, यह सोचने की जरूरत नहीं है। यदि आगे चलकर वादी महन्तसे साठ-गाँठ कर लेते हैं तो भी यह एक विचारणीय विषय होगा कि सत्याग्रहियोंको क्या करना चाहिए।

  1. फीनिक्स।