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पत्र : महाराजा बर्दवानको

गत ८ जूनको दार्जिलिंगमें देशबन्धुने उक्त बातोंपर अपनी अन्तिम सहमति दे दी थी और जरूरी माने जानेपर यह सब हमारे संयुक्त हस्ताक्षरों-सहित प्रकाशित किया जाना था। मुझे बताया गया है कि इस वक्तव्यका प्रकाशन जरूरी है। इसलिए हमारे संयुक्त वक्तव्यके रूपमें इसे प्रकाशित करनेमें मुझे कोई संकोच नहीं हो रहा है। इसके बाद मैंने ऐसा कुछ नहीं पाया कि मुझे अपनी राय बदलनी पड़ती।

[अंग्रेजीसे]
अमृतबाजार पत्रिका, ९-७-१९२५
 

१८३. पत्र : महाराजा बर्दवानको

२६ जून, १९२५

मैं यदि आपको यह न बतलाता कि आपके उस पत्रसे मेरा हृदय क्षुब्ध हुआ है जिसमें आपने स्मारक कोषके लिए अपने दान सम्बन्धी निर्णयकी बात लिखी थी तो मैं राजाओं और महाराजाओंका सच्चा मित्र——जैसा कि मेरा खयाल है कि मैं हूँ——नहीं कहला सकता था। मैं कहूँगा कि इससे आपका अपने देश भाइयोंमें क्षीण विश्वास और उनके प्रति एक गलत मनोवृत्ति व्यक्त होती है। आप उस अपीलके हस्ताक्षरकर्त्ताओंमें अपना नाम प्रकाशित करानेकी अनुमति उदारतापूर्वक दे चुके हैं। यदि उसका कुछ भी अर्थ होता है तो वह यही होना चाहिए कि आप धन-संग्रहको सफल बनानेका दृढ़ संकल्प कर चुके हैं। लेकिन आप जो शर्तें लगा रहे हैं, उनके परिणामस्वरूप धन-संग्रहमें बाधाएँ उत्पन्न होंगी। यदि आपको——एक महाराजा हस्ताक्षरकर्ताको——यह अधिकार हो कि आप दानकी अदायगी इस शर्तपर करेंगे कि कोषकी राशि एक निश्चित रकमतक पहुँच जाये तो फिर अदना हस्ताक्षरकर्ताओंके हकके बारेमें क्या होगा? और यदि वे सभी ऐसी शर्तें लगाएँ तो भला संग्रह किस तरह एक कदम भी आगे बढ़ सकता है? जिन अनेक चंदोंकी उगाहीका सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है, उन सबमें मैंने कोषोंके प्रारम्भकर्ताओंके रूपमें हस्ताक्षर करनेवाले लोगोंको ही सम्बन्धित कोषोंकी सफलताके जमानतदारोंके रूपमें पाया है। मेरा खयाल है कि आपने यह सर्वथा अनुचित रुख किसी गलतफहमीके कारण अपनाया होगा, क्या आप उसको बदलनेकी कृपा करेंगे?

हृदयसे आपका,
मो॰ क॰ गांधी

[अंग्रेजीसे]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।

सौजन्य : नारायण देसाई