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२३४. सत्यपर कायम रहो

बकरीदके दिन खिदरपुरमें हिन्दुओं और मुसलमानोंमें जो दंगा हुआ मैंने उसका हाल देकर पाठकोंको चिन्तामें नहीं डाला, हालाँकि मैं खुद दंगेके कुछ घंटे बाद संयोगसे मौकेपर जा पहुँचा था। मैंने खिदरपुरसे रसा रोड लौटते ही एसोसिएटेड प्रेसके प्रतिनिधिसे काफी देर मुलाकात अवश्य की थी[१]। उसमें मैंने सोच-विचारके उपरांत अपनी यह राय दी थी कि हिन्दू मजदूरोंका कार्य बिलकुल अनुचित था। मेरे इस वक्तव्यको पढ़कर कुछ हिन्दू मुझपर बहुत नाराज हुए हैं और उन्होंने मुझे इस बातपर कि मैंने हिन्दुओं का दोष बताया, चिट्ठियाँ लिखकर बहुत गालियाँ दी हैं और जली-कटी सुनाई हैं। उनमें से एक लेखक कहते हैं कि मैं अपना कोई मुसलमानी नाम रख लूँ। मैं इन पत्रोंका उल्लेख यहाँ यह दिखानेके लिए करता हूँ कि हमारे कुछ लोगोंमें अपने मजहबके लिए अंधा जोश किस हदतक बढ़ गया है। हम अपना कोई भी दोष देखना ही नहीं चाहते। जब किसी धर्म-विशेषके बहुसंख्यक अनुयायियोंकी सामान्य स्थिति ऐसी हो जाती है तब समझ लेना चाहिए कि वह धर्म अस्त हो रहा है; क्योंकि असत्यकी नींवपर स्थित कोई बात अधिक समयतक नहीं टिक सकती।

मैं तो यह कहनेका साहस करता हूँ कि बिना किसी रिआयतके हिन्दू मजदूरोंका दोष बताकर मैंने हिन्दूधर्मकी सेवा ही की है। मेरी इस स्पष्टोक्तिपर खुद मजदूरोंने भी नाराजगी नहीं दिखाई थी; बल्कि उलटी उसके लिए कृतज्ञता ही व्यक्त की थी। उनको अपने कृत्यपर पश्चात्ताप हुआ, उन्होंने अपने कसूरको कबूल किया और सच्चे दिलसे उसके लिए मुआफी माँगी।

मैंने जो-कुछ खुद अपनी आँखोंसे देखा और अपने मनमें अनुभव किया, मैं उसे न कहता तो क्या करता? क्या मैं गुनहगारोंको बचानेके लिए सचाईको छिपाता? जब आधी रातके वक्त हर जगह जा पहुँचनेवाले संवाददाता मेरे पास पहुँचे तब क्या मैं उनसे बातचीत करनेसे इनकार कर देता? उस समय जब कि सत्य कहनेका प्रसंग था, यदि मैं सत्य कहनेमें आगापीछा करता तो मैं अपनेको हिन्दू कहनेका अधिकार खो देता; अपनेको कांग्रेसके सभापति पदके अयोग्य साबित करता और एक सत्याग्रहीके तौरपर अपने नामको धब्बा लगाता। हिन्दू लोग मुसलमानोंपर जो अपराध लगाते हुए नहीं सकुचाते उन्हें चाहिए कि वे स्वयं उसे न करें अर्थात् पहले बुरा काम करना और फिर झूठ बोलकर उसे छिपाना।

एक पत्रलेखक कहते हैं, जब दिल्लीमें हिन्दुओंने आपकी सहायता चाही तब तो आपने यह कह दिया, 'क्या करूँ, निरुपाय हूँ'; जब लखनऊमें आपको बुलाया गया तो आपने टालमटोल कर दी; किन्तु अब जब हिन्दुओंको दोषी ठहरानेका अवसर आया तब आप फौरन मौकेपर जा धमके और आपने उनके सम्बन्धमें बिना विचारे अपना

  1. देखिए "वक्तव्य : एसोसिएटेड प्रेस ऑफ इंडियाको", २-७-१९२५।