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सत्यपर कायंम रहो

फतवा दे दिया। पाठक इस बातको जान लें कि मैं वहाँ हिन्दुओंकी तरफसे एक हिन्दूके द्वारा निमन्त्रण मिलनेपर तथा पहलेसे वहाँ गये हुए श्री सेनगुप्तके बुलानेपर गया था। मेरी बेबसीके रहते हुए भी जब दरअसल लड़ाई हो रही हो और खासकर जब दोनों पक्षोंकी तरफसे बुलावा आये तो मुझे उनको बचानेके लिए वहाँ दौड़ जाना चाहिए। जब मुझे किसी झगड़ेको निपटानेके लिए या रोकनेके लिए एक पक्षके लोग बुलाते हैं, तब चूँकि एक वर्ग-विशेषके हिन्दुओं और मुसलमानोंपर अब मेरा प्रभाव नहीं रहा है इसलिए मैं अपनी लाचारी बता देता हूँ। मैं समझता हूँ कि इन दोनों हालतोंका अन्तर इतना साफ है कि उसे खोलकर बतानेकी आवश्यकता नहीं है।

परन्तु पत्रलेखक कहते हैं और मुझसे मिलनेके लिए आये हुए हिन्दुओंके एक शिष्टमण्डलने भी कहा कि आपने हिन्दुओंकी जो तीव्र भर्त्सना की है उससे मुसलमानोंको निर्दोष लोगोंपर हमला करनेका प्रोत्साहन मिला है और मुसलमान गुण्डोंके हाथों बाजारमें हिन्दू दुकानदारोंके लुटने-पिटनेका खतरा पैदा हुआ है। यदि मेरे हिन्दुओंके कुकृत्योंकी निन्दा करनेका फल यह हो कि मुसलमान लोग कुकृत्य करने लगें तो इससे मुझे दुःख होगा। परन्तु इतना होते हुए भी मैं उचित काम करनेसे पीछे न हटूँगा। फिर मुसलमानोंकी बदलेकी कार्रवाइयोंसे हिन्दू डरें भी क्यों? यदि हिन्दू मेरे अहिंसा और सहिष्णुताके उपायका अनुसरण न कर सकें और मैं जानता हूँ कि जमीन-जायदादवाले लोगोंके लिए वह मुश्किल है तो हिन्दुओंके लिए जो उपाय सम्भव हो उससे आत्मरक्षा करना उचित ही होगा। हम चाहे हिन्दू हों चाहे मुसलमान, हम जब अपनी भीरुता छोड़ देंगे और आत्मरक्षा करनेकी कला सीख लेंगे, हम तभी मनुष्य कहला सकेंगे। जो लोग स्वयं अपनी रक्षा करना न सीखकर औरोंके द्वारा अपनी रक्षा करना पसन्द करते हैं उनके सिरपर एक खास खतरा हमेशा मँडराता रहता है और वे चाहे कितनी ही आँखें क्यों न मूँदे, वह टल नहीं सकता। मेरी खिदरपुरके हिन्दुओंको भर्त्सनासे उन लोगोंकी भर्त्सना अवश्य ही नहीं होती है जो आक्रमण किये जानेपर उनसे अपनी रक्षा करते हैं। यदि मैं देखता कि हिन्दुओंने पहले खुद मार-पीट नहीं की है, बल्कि आत्मरक्षाके लिए हर तरहके संकटोंका सामना किया है और उसमें प्राण भी दिये हैं तो मैं उनकी वीरताको प्रशंसा करता। परन्तु जहाँतक मुझे पता है, खिदरपुरमें उनकी संख्या बहुत भारी थी और उन्होंने खुद मारपीट शुरू की थी। मुसलमानोंने उसके लिए कोई कारण नहीं दिया था। जिस तरह मैंने गुलबर्गा और कोहाटमें किये गये मुसलमानोंके कुकृत्योंकी, जो मेरी रायमें बिलकुल अनावश्यक थे, सहज ही भर्त्सना की थी, मैं उसी प्रकार उत्तेजनाका कारण मिले बिना की गई इस हिंसाकी भर्त्सना भी बिना झिझके करूँगा। मैं एक वारके जवाबमें दो वार करनेकी बात भी समझ सकता हूँ; परन्तु किसी किस्मकी उत्तेजना या खास मौकेपर उत्तेजनाके कारणके बिना किये गये वारके सम्बन्धमें अपने मनको कैसे समझा सकता हूँ?

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १६-७-१९२५