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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लॉर्ड बर्कनहेड कहते हैं कि भारतमें ९ मजहब और १३० भाषाएँ हैं; वह एक राष्ट्र नहीं हो सकता। हमारा कहना है कि समस्त व्यावहारिक उद्देश्योंकी पूर्तिकी दृष्टिसे और बाह्य आक्रमणोंसे रक्षाके मामलेमें हम जरूर एक राष्ट्र हैं। वे समझते हैं कि असहयोग एक भयंकर गलती थी। हममें से बहुसंख्यक लोग मानते हैं कि उसीने इस सोते हुए राष्ट्रको घोर निद्रासे जगाया है और इसीके बदौलत राष्ट्रको अकूत बल मिला है। स्वराज्यदल उसी बलका अप्रत्यक्ष परिणाम है। वे कहते हैं कि ब्रिटिश सरकारने हिन्दू-मुसलमानोंके झगड़ोंमें 'अपने हाथ साफ रखे हैं।' पर प्राय: हर भारत- वासीका यह निश्चित विश्वास है कि हमारे अधिकांश झगड़ोंके लिए मुख्यतः ब्रिटिश सरकार ही जिम्मेवार है। वे मानते हैं कि हमें उनसे सहयोग करना लाजिमी है। हम कहते हैं कि जब उनका हेतु अच्छा होगा या उनका हृदय-परिवर्तन होगा, हम उनके साथ सहयोग करेंगे। वे कहते हैं कि कोई गुणी नेता सुधारोंका उपयोग करनेके लिए खड़ा नहीं हुआ। हम कहते हैं कि दूसरोंकी बात जाने दें। श्री शास्त्री और श्री चिन्तामणिको ही लें; सुधारोंको सफल बनानेके लिए तो वे ही पर्याप्त गुणी पुरुष थे; परन्तु समस्त सद्भावके बावजूद उन्होंने अनुभव किया कि वह सम्भव नहीं है। देशबन्धुने इससे निकलनेका एक रास्ता दिखाया था। उनका वह प्रस्ताव अभी कायम है।

पर उनके प्रस्तावका उत्तर उसी भावसे मिलनेकी क्या कोई आशा है जिस भावसे वह रखा गया है? अंग्रेजोंको और हमको दृष्टिभेदके कारण एक-दूसरेकी बात उलटी नजर आती है। तब क्या कोई ऐसी योजना प्राप्त करनेकी सूरत है जिसपर हम दोनों सहमत हो सकें।

हाँ, ऐसी सूरत अवश्य है।

अभी हम दोनों कौमोंकी हालत अस्वाभाविक है——एक शासक है, दूसरा शासित। हम भारतवासियोंको यह खयाल करना छोड़ देना चाहिए कि हम शासित हैं। यह हम तभी कर सकते हैं जब हमारे पास किसी किस्मका बल हो। १९२१ में हमें लगता था कि हम समझते हैं, वह बल हममें है। इसीसे हमने सोचा था कि स्वराज्य एक सालके भीतर-भीतर मिल रहा है। पर अब तो कोई भविष्यवाणी करनेका साहस नहीं हो सकता। अतः हमें वह बल, सत्याग्रहका शान्तिमय बल, इकट्ठा करना चाहिए। तब हम एक-दूसरेके बराबर हो जायेंगे। यह कोई डर या धमकी नहीं है। यह तो अटल वस्तुस्थिति है। और यदि इन दिनों मैं 'शासकों' की कार्रवाइयोंकी आलोचना नियमित रूपसे नहीं करता तो इसका कारण यह नहीं है कि सत्याग्रहीके भीतर रहनेवाली मेरी अग्नि बुझ गई है। बल्कि उसका कारण यह है कि मैं वाणी, लेखनी और विचारमें मितव्ययी हूँ। जिस दिन मैं तैयार हो जाऊँगा मैं अपनी वाणीका खुला उपयोग करूँगा। मैंने लॉर्ड बर्कनहेडकी इस घोषणाकी आलोचना करनेका साहस खासकर बंगालके और आमतौरपर भारतके वियोग-व्यथित लोगोंको यह बतानेके लिए किया है कि लॉर्ड बर्कनडके भाषणकी अनचाही तीक्ष्णताको मैं भी उन्हींकी तरह अनुभव करता हूँ। मैं यह भी बताना चाहता हूँ कि पण्डित मोतीलाल जहाँ विधानसभामें