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वंचनासे भरा भाषण

पानेके लिए तुम्हें सोलह आनेकी माँग करनी चाहिए; किन्तु मैं इसे कभी नहीं सीख पाया; क्योंकि मेरा मत तो यह था कि हमें जितनेकी जरूरत हो हम उतना ही माँगें और उतना न मिले तो उसके लिए लड़ें। परन्तु यह बात मेरे ध्यानमें अवश्य ही आ गई थी कि पूर्वोक्त व्यावहारिक सलाहमें बहुत-कुछ सत्यांश है।

यदि माँगके साथ बल, फिर वह हिंसात्मक हो या अहिंसात्मक, हो तो बेहूदासे-बेहूदा संविधानपर भी तुरन्त विचार किया जायेगा। यह बात अंग्रेजोंके बारेमें, जो कमसे-कम एक प्रकारके बलका मूल्य तो भली-भाँति जानते ही हैं, खास तौरसे लागू होती है।

भारतकी वह अथक सेविका डॉ॰ बेसेंट एक विधेयक तो इंग्लैंड ले ही गई हैं। उसपर कितने ही प्रसिद्ध भारतीयोंने दस्तखत किये हैं। यदि कुछ अन्य लोगोंने उसपर दस्तखत नहीं किये हैं तो उसका कारण यह नहीं है कि वे उससे सन्तुष्ट नहीं थे, बल्कि उसका कारण यह है कि वे जानते हैं कि वह रद्दीकी टोकरीमें डाल दिया जायेगा; उसकी गति इसके सिवा दूसरी न होगी। उसपर दस्तखत न करनेका कारण यह है कि दस्तखत न करनेवाले लोग उसकी बिना सोचे-समझे की जानेवाली रद्दगीसे होनेवाले राष्ट्रके अपमानमें भागी होना नहीं चाहते। जरा लॉर्ड बर्कनहेड कहें तो कि क्या वे भारतके लोकमतको बहुतांशमें प्रदर्शित करनेवाले किसी एक दल द्वारा या एकाधिक दलों द्वारा तैयार किये गये किसी युक्तिसंगत संविधानको मंजूर कर लेंगे? यदि वे ऐसा कहें तो वह संविधान एक सप्ताहमें ही बनकर तैयार हो जायेगा। वे सार्वजनिक रूपसे डॉ॰ बेसेंटको यह आश्वासन दे दें कि पण्डित मोतीलाल नेहरू और अन्य लोगोंके, वे जिनके नाम लें, दस्तखत कर देनेसे उसके स्वीकृत होनेकी पूरी-पूरी सम्भावना है तो मैं इस बातका जिम्मा लेता हूँ कि मैं उसपर उनके दस्तखत करा दूँगा। पर बात यह है कि लॉर्ड बर्कनहेडके प्रस्तावमें सचाईकी गन्ध तक नहीं है।

भारतमन्त्रीने जो-कुछ देनका प्रस्ताव किया है, उसमें ईमानदारी नहीं दिखाई देती; लेकिन इसमें उनका कुसूर नहीं है। हम अभीतक किसी बातका दावा करनेके लिए तैयार जो नहीं हैं। इसलिए स्वभावत: ब्रिटिश सरकारका काम यही हो जाता है कि वह हमें कुछ देनेकी बात करे और हमारा काम है कि हम उसे फिलहाल काफी न समझें तो लेना नामंजूर कर दें। नये प्रधान सेनापतिने जिसे अप्राप्य कहा है, हमारे लिए तो वही एक चीज इस लायक है कि हम उसके लिए जियें, लड़ें और मरें। मनुष्यका जन्मसिद्ध अधिकार कभी अप्राप्य नहीं हो सकता और लोकमान्यने हमें बताया है कि स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। स्वराज्यकी परिभाषा है——अपना शासन स्वयं करना; भले ही कुछ समयतक वह कुशासन भी हो। हम अंग्रेज और हिन्दुस्तानी, इस समय भारी दिमागी उलझनमें फँसे हैं। लॉर्ड वर्कनहेड समझते हैं कि ब्रिटिश सरकार हम भारतीयोंके सुख-सुविधाकी न्यासी है, किन्तु हम मानते हैं कि उसने हमें अपने स्वार्थके लिए गुलामीकी जंजीरोंमें जकड़ रखा है। न्यासी अपने प्रतिपालितकी आयका ७५ फीसदी मेहनतानामें कदापि वसूल नहीं करता।