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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कहा जाता है तो आप अपनी विवेक-बुद्धिका जितना उपयोग कर सकते हैं, करें। उम्मीदवारोंको सिरसे पैरतक खूब बारीकीसे परख लें। किन्तु, अपना चुनाव कर लेनेके बाद और गलेमें माला डाल देने के बाद, सीताके समान आप अपने चुने हुए नेतासे कभी विमुख न हों, और सीताके समान आप उसके साथ आगके बीच गुजर जायें तब फिर आपके सभी काम सध जायेंगे। (तालियाँ)

[अंग्रेजीसे]

सर्चलाइट, ८-५-१९२५


१५. बंगालके संस्मरण

४ मई, १९२५
 

फरीदपुरसे लौटकर सोमवारको मैं ये संस्मरण देशबन्धु दासको पुरानी कोठीको छतपर बैठा हुआ लिख रहा हूँ। बंगाल में आये आज मुझे चार दिन हो गये हैं। परन्तु इस कोठीमें मेरे दिलको पहले-पहल जो चोट लगी उसकी कसक अभीतक नहीं गई है। मैं जानता था कि यह कोठी देशबन्धुने सार्वजनिक कार्यके लिए दान कर दी थी। मैं जानता था कि उनपर कर्ज है। परन्तु उसके साथ ही मैं यह भी जानता था कि वे यदि वकालत करें तो एक वर्षसे कम समयमें ही सारा कर्ज अदा करके कोठीके मालिक बन सकते थे। परन्तु उन्हें वकालत तो करनी नहीं थी या यों कहें कि वे तो बिना फीस लिए देशकी वकालत करना चाहते थे; इसलिए उन्होंने इस महल-जैसी कोठीको दान करनेका निश्चय किया और उसे न्यासियोंको सौंप दिया। परन्तु उनकी इच्छा थी कि मैं इस यात्राके दौरान कलकत्ते में तो उनके इस पुराने मकानमें ही ठहरूँ। मैं इसीलिए यहाँ आकर ठहरा हूँ।

परन्तु जानना एक बात है, और देखना दूसरी बात। इस घर में प्रवेश करते समय मेरा हृदय रो उठा। मेरी आँखोंमें आँसू भर आये। उसके मालिक और उसकी मालिकीके बिना मुझे वह मकान जल-जैसा मालूम हुआ। मेरे लिए उसमें रहना मुश्किल हो गया और मेरे मनमें यह भाव अभीतक बना ही हुआ है।

मैं जानता हूँ कि यह मोह है। देशबन्धुने इस मकानका कब्जा देकर अपने सिरपर से एक बोझ उतारा है। इस दम्पतीके लिए इस मकानका, जिसमें वे खो जा सकते हैं, क्या उपयोग था? वे इच्छा करते ही झोंपड़ीको राजमहल बना सकते हैं। उन दोनोंने इसे स्वेच्छासे त्यागा है। इसमें खेद करने की बात ही क्या है? यह तो हुई ज्ञानकी बात। यदि मुझमें यह ज्ञान न हो तो मुझे आजसे ही महल बनानेका उद्यम आरम्भ करना पड़े।

परन्तु देहाध्यास कहीं जाता है? जैसा दासने किया, क्या संसार ऐसा करता है ? दुनिया तो महल मिले तो महलको ही लेना चाहती है। परन्तु इस मनुष्यने उसका त्याग कर दिया। धन्य है यह मनुष्य! मेरे आँसू प्रेमके है। मुझे जो चोट