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बंगालके संस्मरण

लगी है वह भी इस प्रेमके कारण ही। और क्या यह स्वार्थमूलक नहीं है? यदि देशबन्धुके साथ मेरा कुछ भी सम्बन्ध न होता और मैंने इस मकानमें उनके राज्य करनेकी बात न सुनी होती तो मुझे यह चोट न लगती। मैंने महल तो बहुत-से देखे हैं, जिनके मालिक उन्हें छोड़कर दुनियासे ही चले गये। परन्तु उनमें प्रवेश करते मेरी आँखोंसे आँसू नहीं गिरे, इसलिए मेरा यह रोना स्वार्थमूलक भी है।

चित्तरंजन दासने महल-जैसी कोठीका त्याग करके ठीक ही किया है। क्योंकि इससे उनकी सेवाकी कीमत बढ़ गई है।

बंगाली लोग दीवाने हैं। जिस तरह दास दीवाने है उसी तरह प्रफुल्लचन्द्र राय भी दीवाने हैं। जब वे मंचपर आकर व्याख्यान देते हैं तब मानो नाचते हैं। तब कोई नहीं मान सकता कि वे ज्ञानी हैं। वे मेजपर हाथ मारते हैं और जमीन- पर पैर पटकते हैं। अपनी बंगलामें जब चाहते हैं अंग्रेजी भी मिला डालते हैं। जब बोलते हैं तब अपनेको भूल जाते हैं। वे अपने विचारोंके आवेशमें ही मग्न हो जाते हैं। दूसरे लोग हँसेंगे या क्या कहेंगे, उन्हें इस बातकी परवाह शायद ही होती है। हम जबतक उनकी बातें न सुनें और उनकी आँखोंसे अपनी आँखें न मिलावें तब- तक हमें उनकी महत्ताका कुछ भी पता नहीं लग सकता। मुझे एक घटना याद आती है। तब मैं कलकत्तामें गोखलेके साथ रहता था और आचार्य राय उनके पड़ोसमें रहते थे। एक बार हम तीनों स्टेशनपर गये। मेरे पास तो मेरा तीसरे दर्जेका टिकट था। वे दोनों मुझे पहुँचाने आये थे। तीसरे दर्जे के मुसाफिरको पहुँचानेके लिए आनेवाले तो भिखारी ही हो सकते हैं। परन्तु गोखलेका भरा हुआ चेहरा, रेशमी पगड़ी और रेशमी किनारीकी धोती, टिकट बाबूकी दृष्टिमें काफी थे। परन्तु इस अस्थिपंजर-जैसे ब्रह्मचारीको जो मैला-सा कुरता पहने दुबला-पतला भिखारी-जैसा दिखता था, बिना टिकट कौन अन्दर जाने देता? जहाँतक मुझे याद है, वे बिना दुःख अनुभव किये बाहर ही खड़े रहे। और गोखले उस खचाखच भरे डिब्बमें किसी तरह मेरे घुस जानेपर मेरी हठधर्मीकी टीका करते हुए उनके पास लौटे। आचार्य राय असंख्य छात्रोंके हृदयपर राज्य क्यों करते हैं ? वे भी त्यागी हैं; और अब तो वे खादीके दीवाने हो गये हैं। शिक्षा-विभागकी एक बंगालिन अधिष्ठात्रीसे यह कहते हुए उन्हें जरा भी संकोच नहीं हुआ था, 'आप खादी नहीं पहनतीं तो किस काम की?' वे ऐसा न कहें तो उनके खुलनाके भिखारियोंकी बनाई खादीको कौन खरीदे ?

हम उसी रात फरीदपुर रवाना हो गये। भाई शंकरलालने मेरे स्वास्थ्यके सम्बन्धमें सतीश बाबूको बहुत डरा दिया था; अतः वे मेरे लिए कोई कमी कैसे रख सकते थे? वे भी तो इन्हीं दीवानोंके दलमें हैं न? उन्होंने छोटी-छोटी बातें भी पूछ रखी थीं। मेरी पीठको आराम देने के लिए जहाँ भी मैं बैठता वहाँ एक पीठिका तैयार रहती थी। उसे सादी और कीमती न होने से मैं बरदाश्त कर लेता था। परन्तु जब हम स्टेशनपर पहुँचे तो देखा कि मेरे लिए और मेरे साथियोंके लिए पहले दर्जेका डिब्बा तैयार है। इसमें फरीदपुरको स्वागत समितिका भी हिस्सा था। अभी हाल ही में एक सज्जनने 'यंग इंडिया' में एक सवाल पूछा था कि आप