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भाषण : रोटरी क्लबके सदस्योंकी बैठक में

है और इसलिए इस उद्योगमें अपने विनाशके प्रतिरोधकी वैसी शक्ति नहीं थी जैसी कि बुनाई उद्योगमें थी और इसका सीधा-सा कारण यह है कि जहाँ बुनकर लोगोंका एकमात्र उद्योग बुनना है जबकि [कातना किसीका मुख्य धंधा नहीं है;] किसानोंका मुख्य धन्धा खेती है। भारत ६० करोड़ रुपयका विदेशी सूत मँगाता है और उतने ही मूल्यका सूत यहाँकी मिलें तैयार करती है। आप आसानीसे कल्पना कर सकते हैं कि भारत-जैसे गरीब देशके लिए, जहाँ लॉर्ड कर्जनके अनुसार उनके समयमें प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष सिर्फ ३० से ३२ रुपयतक ही कमाता था, इसका क्या अर्थ है। स्वर्गीय श्री दादाभाई नौरोजीने भारतीयोंकी औसत वार्षिक आय २६ रुपये कूती थी। स्वर्गीय श्री आर॰ सी॰ दत्तने लॉर्ड कर्जनके कथनसे असहमति प्रकट की थी और मेरा विचार है कि यह बात सफलतापूर्वक सिद्ध कर दी गई है कि श्री दादाभाई द्वारा कूती गई आय ज्यादा विश्वसनीय और सही है। लेकिन अगर लॉर्ड कर्जन द्वारा कूती गई आयको ही लें तो उससे क्या प्रकट होता है? प्रतिमास ३ रुपये से भी कम। अगर चरखा उनकी आयमें प्रतिवर्ष ५-६ रुपयकी भी वृद्धि कर सके तो क्या यह उनका सौभाग्य नहीं होगा? अवश्य होगा। यह तो चरखेका आर्थिक पक्ष हुआ। यह आर्थिक कष्टको समस्याको बहत-कुछ हल कर सकता है। यह अकालको समस्याको हल कर देगा। यह गरीबीकी समस्याको हल कर देगा। लोगोंको दानपर जीने की जरूरत नहीं है। यह दाताके लिए भी लज्जाजनक है और उस दान लेनेवालेके लिए भी, जिसको कि भगवानने हाथ-पैर दे रखे है।

चरखेके नैतिक पक्षकी चर्चा करते हुए श्री गांधीने कहा कि यह आर्थिक पक्षका ही स्वाभाविक परिणाम है। अगर आप लोग भारतको कल-कारखानोंसे भरकर इंग्लैंड और अमेरिकाके ढंगपर उसका उद्योगीकरण करना ही चाहें तो [मेरा कहना है कि] एक छोटी-सी आबादीको तो औद्योगिक ढाँचेमें ढाला जा सकता है, लेकिन किसी बड़ी आबादीवाले देशको आनन-फाननमें औद्योगिक रूप नहीं दिया जा सकता। उन्होंने पूछा :

क्या आप लोगोंको शहरोंकी गन्दी बस्तियोंकी सन्दूकनुमा कोठरियोंमें रहनेपर मजबूर करना चाहते है, जहाँ स्त्रियों और पुरुषोंको बाड़ोंमें जानवरोंकी तरह ऐसी परिस्थितियोंमें रहना पड़ता है, जिनका मैं आपके सामने वर्णन नहीं कर सकता। मैं उन्हें यह धन्धा देकर ऐसी अनैतिकतासे बचाता हूँ। इसका एक दूसरा नैतिक लाभ भी है। कोई व्यक्ति कैसा है, यह बात अक्सर उसके धन्धको देखकर ही जानी जाती है। अंग्रेजीकी इस कहावतमें बहुत सचाई है कि 'जब पुरुष, सिर्फ खेती करता था और स्त्री कताई करती थी तब वे उन लोगोंकी तरह कहाँ थे जिन्हें आप सभ्य कहते हैं?' वह ऐसा समय था जब लोग सचमुच सन्तुष्ट थे और उनके बीच सच्चा भ्रातृत्व था।[१]

  1. इसके बादके तीन अनुच्छेद यंग इंडिया, २७–८–१९२५ में छपे महादेव देसाईके यात्रा-विवरणसे उद्धृत किये गये हैं।