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पत्र : मथुराप्रसाद त्रिकमजीको

रहा हूँ, सो सिर्फ उन्हीं लोगोंको दृष्टिमें रखकर जो यात्राके दौरान भी कताई बन्द करना नहीं चाहेंगे। मझको बहत-से ऐसे लोगोंसे मिलनेका मौका मिलता है जो कहते है कि बराबर यात्रापर रहने के कारण ही वे चरखा नहीं चला पाते। अब इस सफरी चरखेसे ऐसी किसी बहानेबाजी की गुंजाइश नहीं रह जाती।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २०–८–१९२५
 

५२. पत्र : वसुमती पण्डितको

[कटक
२० अगस्त, १९२५][१]

चि॰ वसुमती,

तुम्हारा पत्र मिला। शान्त मनसे आश्रममें रहना। तुम कहाँ रह रही हो सो बताना। नवीबन्दर मैंने स्वयं तो नहीं देखा है, लेकिन कल्पना कर सकता हूँ। मैं आज कटकमें हूँ। चमड़ेका कारखाना देखने आया हूँ। महादेव और सतीशबाबू साथ है। तुम्हारी तबीयत बिलकुल ठीक होनी ही चाहिए। मुझे तो पूरा विश्वास है कि हीरा रहनसे तुम बिलकुल ठीक हो जाओगी।

बापूके आशीर्वाद

[पुनश्च :]

अब तो जल्दी ही मिलना होगा। मैं वहाँ ५ तारीखको पहुँचूंगा। :गुजराती पत्र (एस॰ एन॰ ९२१७) की फोटो-नकलसे।
 

५३. पत्र : मथुरादास त्रिकमजीको

[कटक]
२० अगस्त, १९२५

भाई मथुरादास,

तुम्हारे उस पत्रको पढ़कर मुझे बहुत खुशी हुई जिसमें तुमने अपनी भूल स्वीकार की है। यह दोष सामान्य है। असंदिग्धवाणी तो केवल उसीकी होती है जो बिना सोचे समझे कदापि नहीं बोलता और तभी बोलता है जब बोले बिना काम न चले। भाषाका उपयोग कृपणके समान करना चाहिए। तुमने निश्चय कर लिया है, इसलिए सब-कुछ ठीक ही होगा। आज कटकमें हूँ और मुझे कुछ फुर्सत मिली है।

  1. डाककी मुहरसे।