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मालिकोंमें से एक

प्रिय है। परन्तु जिसने बेइमानी की हो, भला वह पंचनीतिको क्या स्वीकार कर सकता है? जिस तरह चोर दण्डके वशीभूत होते देखे जाते है, वैसी ही हालत दुष्टोंकी भी है। समाज अभी इतनी ऊँचाईतक नहीं पहुँचा है कि वह दण्डनीतिको छोड़ सके। अभी तो इस प्रकारकी अहिंसा केवल व्यक्तियोंके ही लिए शक्य दिखाई देती है। व्यक्तियोंमें भी केवल वही दण्ड-नीतिको सर्वथा छोड़ सकता है, जिसने परिग्रहका सर्वथा त्याग कर दिया हो। यहाँ तो ऋण लेनेवाले तथा उनकी जमानत देनेवाले दोनों ही खादी-मण्डलका धन वापस नहीं दे रहे हैं। तब खादी-मण्डलका यही एक धर्म है कि वह अदालतमें जाकर भी उनसे पैसा वसूल करे। 'गीताजी' का स्थूल अर्थ करते हुए भी यही रहस्य निकलता है। अर्जुनने सारी जिन्दगी शस्त्र-संचालनमें बिताई थी। श्मशान-पाण्डित्य उसके लिए किस कामका था? लड़ाई तो वह उसकी तैयारी करते ही स्वीकार कर चुका था। उसका धर्म यही था कि लड़कर वह अपने उस समयके धर्मका पालन करे। इसी प्रकार खादी-मण्डलने जब सार्वजनिक द्रव्य उधार दिया, तभीसे उसे यह धर्म प्राप्त हो गया कि यदि जमानतदार अयोग्य साबित हो तो उन्हें अदालतमें ले जाकर भी पैसा वसूल कर ले। पंचायत तो वहीं चल सकती है, जहाँ दोनों पक्ष पंचको मानने के लिए तैयार हों। पंचका मान अभी तो लुप्त-सा ही हो गया है। ऐसी अवस्थामें केवल यही हो सकता है कि हम खुद पंचायतको माननेके लिए हमेशा उत्सुक रहते हए और उसके लिए प्रयत्न करते हुए जरूरत पड़नेपर मौजदा अदालतोंमें जायें। लेकिन पंचायतकी प्रवृत्ति आम तौरपर स्वीकृत होनेके पहले बहुत लोगोंको तपश्चर्या करके आत्मशुद्धि करनी पड़ेगी। वह हम यथाशक्ति करें।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २३–८–१९२५
 

५७. मालिकोंमें से एक

'नवजीवन' के ग्राहक भी अपनेको 'नवजीवन' का मालिक ही मानें, यह बात मैंने सोच-समझकर ही लिखी थी। अपने उक्त कथनको सही सिद्ध करने के लिए मैं अब एक ऐसे ही ग्राहक-मालिकका पत्र, पत्रके प्रश्नोंको छाँटकर उत्तर-सहित छाप रहा हूँ, और यह इसलिए कि वे इसके मालिक हैं :

'नवजीवन' ने पचास हजार रुपयेकी बचत की, फिर भी ग्राहकोंको उसका कोई सीधा लाभ नहीं दिया। ऐसी स्थितिमें दूसरे पत्र-प्रकाशक क्या करते हैं, इसका विचार करें। आपके व्यवहारको तुलना उनके व्यवहारसे करें तो क्या यह अन्याय नहीं है? प्रत्येक दैनिक, साप्ताहिक अथवा मासिक हर साल कुछन-कुछ साहित्य भेंटके रूपमें देता ही है। इसी तरह 'नवजीवन' भी कोई उत्तम भेंट क्यों नहीं दे सकता?

हर पत्रका अपना दृष्टिकोण होता है। 'नवजीवन' किसीके साथ स्पर्धा नहीं करता। यह किसीके निजी लाभके लिए भी नहीं छापा जाता। 'नवजीवन' को जो