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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यह कामना अवश्य करेगा कि उसमें सुधार हो, लेकिन उसको दण्ड मिलनेकी कामना नहीं करेगा। और फिर भी इस कथनमें काफी औचित्य है कि लोगोंको सही मार्गपर चलानेके लिए जो व्यवस्था है, उसमें से अगर दण्डका विधान हटा लिया जाये, उसे स्थगित अथवा समाप्त कर दिया जाये तो समाज छिन्न-भिन्न हो जायेगा। इन उदाहरणोंको देखकर नौजवान लोग तुरन्त इस निष्कर्षपर पहुँच जाते है कि जो लोग राष्ट्रीयताके लिए दूसरोंसे घृणा करना जरूरी नहीं मानते, वे गलतीपर है। मैं उनको दोष नहीं देता। वे दयाके पात्र है। मेरी सहानुभूति ही उन्हें मिलनी चाहिए। लेकिन मेरे मनमें तनिक भी सन्देह नहीं है कि वे बहुत बड़े भ्रममें पड़े हुए हैं, और जबतक उनका रुख ऐसा ही रहता है, जबतक पुरुषों और स्त्रियोंका एक बहुत बड़ा समूह ऐसा रुख बनाये रखता है, तबतक वे देशकी प्रगति और संसारकी प्रगतिके मार्गमें एक रुकावट बने रहेंगे। मैंने जो उदाहरण दिये हैं, उन्हीं सबको उनके आचरणका औचित्य सिद्ध करनेके लिए भी पेश किया जा सकता है; किन्तु इससे मेरे लेखे कोई फर्क नहीं पड़ता।

संसार घृणासे ऊब गया है। हम देख रहे हैं कि अब पश्चिमी राष्ट्रोंपर एक थकान हावी होती जा रही है। हम देख रहे हैं कि घृणाका राग अलापनेसे मानवताकी कोई भलाई नहीं हुई है तो अब आप ऐसा कीजिए जिससे भारत एक नया अध्याय शुरू कर सके और संसारको एक नया पाठ पढ़ाया जा सके। (साधुवादके स्वर)। क्या तीस करोड़ लोगोंके लिए एक लाख अंग्रेजोंसे घृणा करना जरूरी है? मैं समझता हूँ कि आज अगर इस सुस्पष्ट प्रश्नपर विचार किया जाये तो उसमें आजकी चर्चाके विषयका पूरा सार आ जायेगा। मेरी नम्र सम्मतिमें अंग्रेजोंसे एक क्षणके लिए भी घृणा करना मानवताकी प्रतिष्ठाके लिए, भारतकी प्रतिष्ठाके लिए बहुत अश्रेयस्कर है। इसका मतलब यह नहीं कि भारत में अंग्रेज शासक जो अत्याचार करते देखे गये हैं उनकी ओरसे आप आँखें बन्द कर लें। मैंने बुराई करनेवालोंमें यह विशेष अन्तर रखा है। बुराईसे घृणा कीजिए, लेकिन बुराई करनेवालेसे नहीं। हम खुद भी, हम में से एक-एक व्यक्ति बुराईसे भरा हुआ है। लेकिन, हम चाहते है कि संसार हमारे साथ धैर्यसे काम ले, हमें क्षमा करता रहे, हमारे साथ नम्रता बरते। मैं चाहता हूँ कि अंग्रेजोंके साथ भी हम ऐसा ही व्यवहार करें। ईश्वर जानता है कि भारतमें ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं जो यह दावा कर सकता हो कि वह अंग्रेज-शासकोंके कुकृत्यों और जिस प्रणालीसे हम शासित होते हैं, उस प्रणालीकी बुराईके बारेमें मुझसे अधिक तीव्रता और निर्भीकतासे बोला है। किन्तु इस कारणसे कि मैं घृणासे मुक्त हूँ—और स्वयं अपने विषयमें तो मैं यहाँतक कहूँगा कि जो लोग अपनेको मेरा दुश्मन मानते हैं, उनके प्रति भी मेरे मनमें प्रेम है। मैं उनकी गलतियोंकी ओरसे अपनी आँखें बन्द नहीं कर सकता। प्रेमके पात्रमें सचमुच विद्यमान अथवा कल्पित किसी गुणके ही कारण जो प्रेम दिया जाता है वह प्रेम, प्रेम नहीं है। अगर मैं अपने प्रति ईमानदार हैं, अगर मैं मानव-समाजके प्रति ईमानदार हूँ, तो मुझे उन तमाम दोषोंको समझना चाहिए जो किसी मानव देहधारीमें होते ही हैं। मुझे