पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 28.pdf/१६५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३७
भाषण : राष्ट्रीयतापर

हो, अंग्रेजोंका विनाश हो, तो मै भारतकी आजादी नहीं चाहता। मैं अपने देशकी आजादी इसलिए चाहता हूँ कि दूसरे देश हमारे आजाद देशसे कुछ सीख सकें। जिस प्रकार आज देशभक्तिका यह तकाजा है कि व्यक्तिको परिवारके लिए मरना चाहिए, परिवारको गाँवके लिए, गाँवको जिलेके लिए, जिलेको प्रान्तके लिए, प्रान्तको देशके लिए, उसी प्रकार मैं अपने देशकी आजादी इसलिए चाहता हूँ कि उसकी शक्ति और साधनोंका उपयोग मानवताके लाभके लिए हो सके। और जब हम प्रान्तीय भावनाको लेकर चलते हैं तब एक गुजरातीकी हैसियतसे में अगर यह कहूँ कि सबसे पहले गुजरात—और बंगाल तथा अन्य प्रान्तोंका सवाल उसके बाद ही उठता है तो इसमें जरा भी राष्ट्रीयता नहीं है। इसके विपरीत अगर मैं गुजरातमें रहता हूँ और गुजरातको तैयार करता हूँ तो उसे इस तरह तैयार करना चाहिए जिससे गुजरातके विस्तृत साधनोंका उपयोग बंगाल और बंगाल ही क्यों, सारा हिन्दुस्तान कर सके, जिससे गुजरात भारतके लिए मर मिटे। इसलिए मेरा राष्ट्र-प्रेम यह है कि हमारा देश आजाद हो सके; इसलिए आजाद हो सके कि जरूरत पड़े तो मानवजातिकी रक्षाके लिए सारा देश मर मिटे। इसमें किसी जातिसे घृणा करनेकी गुंजाइश नहीं है। मेरी कामना है कि हमारी राष्ट्रीयता ऐसी ही हो।[१]

भाषण समाप्त होनेपर इम्पीरियल लाइब्रेरीके पुस्तकाध्यक्ष श्री चैपमैनके प्रश्न के उत्तरमें गांधीजीने बड़ा करारा उत्तर दिया। श्री चैपमैनके प्रश्नका आशय यह था : "जबकि भारतीय अपना शासन स्वयं चलाने योग्य नहीं हैं, ऐसी स्थितिमें भारतीयोंका राजनीतिक स्वतन्त्रता और समानतापर साग्रह जोर देना क्या जातीय घृणाको बढ़ावा नहीं देता?"

मैने जो-कुछ कहा है, उससे अगर आपने यह निष्कर्ष निकाला है कि जबतक हममें अपना कारोबार खुद ही सँभालनेकी योग्यता नहीं आ जाती तबतक हम आपके शासनमें रहें तो आप भ्रममें है। हम वह योग्यता इस शासन-प्रणालीका विरोध करके ही विकसित कर सकते है और मैं इतना और कहना चाहता हूँ कि प्रश्नकर्ता जब यह कहते हैं कि भारतीय अपना शासन स्वयं चलानेके योग्य नहीं है तो वे अपने जातीय पूर्वग्रहका परिचय देते है। उस पूर्वग्रहके भीतर उच्चताकी भावना और यह अहंकार छिपा हुआ है कि अंग्रेज संसारपर शासन करनेके लिये ही जनमें हैं। इस भावनाके विरुद्ध लड़ने के लिए मैंने अपने पूरे जीवनको उत्सर्ग कर दिया है। जबतक अंग्रेज इस स्थितिसे च्युत नहीं कर दिये जाते तबतक भारतमें शान्ति नहीं हो सकती और न दुनियाकी दूसरी कमजोर जातियोंको ही शान्ति मिल सकती है। अगर भारत अपना शासन ठीक ढंगसे नहीं चला सकता तो उसे अधिकार है, वह उसे बुरे ढंगसे ही चलाये। जो भी विदेशी मेरे देशपर ऐसी शान्ति थोपता है जिसे यहाँ "ब्रिटेन प्रदत्त सुख-शान्ति" कहा जाता है, उसके प्रति मेरा हृदय विद्रोह कर उठता है।

[अंग्रेजीसे]
फॉरवर्ड, २९–८–१९२५
  1. इससे आगे का अंश १०–९–१९२५< के यंग इंडियामें छपे महादेव देसाईके यात्रा विवरणसे उद्धृत किया गया है।