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७२. भाषण : छात्रोंकी सभामें[१]

कलकत्ता
२९ अगस्त, १९२५

थैली भेंट करने के लिए छात्रोंको धन्यवाद देते हुए महात्मा गांधीने कहा कि आपको यह याद रखना चाहिए कि आपको देशबन्धुकी स्मृतिका सम्मान करना, देशका सम्मान करना और यह व्रत लेना है कि आप अपने देशके लिए चाहे जितना कम क्यों न हो, अपनी शक्तिके अनुसार जितना बनेगा उतना अवश्य करेंगे। लेकिन, जैसा कि मैने बार-बार कहा है, चन्देमें दिये हुए आपके इन पैसोंको तो मैं भविष्यमें देशके लिए कार्य करनेका वचन देना-भर मानता हूँ।

संगठनका मर्म समझाते हुए महात्माजीने कहा कि सबसे पहले आपको यह समझना होगा कि संगठनका अर्थ क्या है। संगठनका अर्थ है, लोगोंका कोई एक ही उद्देश्य और एक ही संकल्प होना। ज्यों ही आप ये दो शर्तें पूरी करते हैं, समझ लोजिए कि एक छोटा-सा संगठन तैयार हो गया। यद्यपि प्रतीत ऐसा होता है कि हम भारतीयोंको आकांक्षाएँ एक जैसी है, किन्तु हम अभी यह नहीं समझे हैं कि अपनी समान आकांक्षाओंको सफल बनानेके लिए हमें समान उपाय भी अपनाने चाहिए। अभी हममें अपनी इन समान आकांक्षाओंको फलीभूत करने के लिए जुटकर काम करने की शक्ति नहीं आई है। आज भी हमारी आकांक्षाएँ न्यूनाधिक मात्रामें आदर्श ही बनी हुई हैं। हममें से जो थोड़ेसे लोग उन आदीको कार्यरूप देने का प्रयत्न कर रहे हैं, उनकी संख्या इतनी कम है कि वे इस तरह संगठित नहीं हो पाते, जैसा संगठित होना इन आकांक्षाओंको भारतमें जन-व्यापी बनाने के लिए जरूरी है। सक्षम संगठनके लिए दूसरी आवश्यकता है नेताको या उससे भी बढ़कर सैनिकोंको। हमारे बीच कोई देशबन्धुके समान महान् नेता हो सकता है और हो सकता है कि लोग उसके प्रति भक्ति और प्रेमके कारण एक अनिवार्य आकर्षणके अधीन कुछ कालतक उसका अनुगमन भी करते चले जायें। लेकिन, संगठन इससे नहीं बन जाता। संगठनको कसौटी तो यह है कि लोग सिपाहियोंकी लगनसे काम करें और सो भी किसीके व्यक्तित्वसे आकृष्ट होकर नहीं, बल्कि सिद्धान्तको ओर आकृष्ट होकर। इस तरह संगठन के लिए जो चीजें जरूरी है, वे हैं—समान आकांक्षा, समान उद्देश्य, नेता और अनुशासित अनुयायीगण

  1. सभा रसा थियेटर हॉलमें आशुतोष कालेजकी छात्र-संसद्के तत्त्वविधानमें हुई थी और उसमें गांधीजीको अखिल बंगाल देशबन्धु स्मारक कोशके लिए १,००१रुपयेकी थैली भेंट की गई थी। प्रोफेसर एम॰ सी॰ भट्टाचार्यने सभाकी अध्यक्षता की थी।